कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
कार में, जिसमें एकदम अँधेरा और गर्मी है
केवल उसकी आँखों की पुतलियाँ चमकती हैं ;
वह फेंकती है ऊपर की तरफ अपने पैर
जैसे हमले की रौशनी झपटती हो.
कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
किसी तरह, वह खोलती है द्वार
और मारती है छलाँग-सड़क पर.
ब्रेक रिरियाते हैं.
कोई उसकी ओर लपकता है,
उसे मारता है, औंधे मुँह,
खिंची हुई घास में घसीटता है.
टुच्चा ! कैसे सलीके से उस स्त्री को पीटता है.
शोहदा, हरामी, यौधेय,
गड़ती है उस स्त्री की पसली में
उस आदमी के भड़कीले जूते की नोक.
ऐसा ही होता है दुश्मन के सैनिक के सुखों का लोक,
काश्तकारों की क्रूर आत्म तृप्तियाँ.
चाँदनी में बिछी हुई घास को कुचलते हुए पैर से
कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
कोई एक स्त्री को पीट रहा है
सदी-दर-सदी, कोई अंत नहीं ;
पिटती है वह जो जवान है . डूबकर
गहरे अवसाद में, घंटियाँ विवाह की
बदलती हैं खतरे के प्रतीक में
कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
और वह क्या है, वह, लौ जैसा चिन्ह, जो
उछल आया है, उनके सुलग रहे गालों पर ?
ज़िन्दगी. तुमने कहा ! क्या यह
तुमने मुझसे कहा?
कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
- मगर उसकी रोशनी बिलकुल निष्कम्प,
एक अनंत संसार है
न कोई धर्म है,
न कोई सत्य,
केवल स्त्रियाँ हैं.
पानी की तरह निर्वर्ण उसकी आँखें
आँसुओं में डूबी और थिर
जंगल में गहराती छाया जितनी भी
उन पर नहीं, उसका अधिकार.
और तारे ? बजते हैं नीले आकाश में,
जैसे स्याह शीशे पर
वर्षा की बूँद,
गिर-गिर कर, टूट-टूट कर उसके लोक में
वे उसके शोक-तप्त माथे को
शीतल करते हैं.
कवि - आन्द्रे वोज्नेसेंस्की (1960 )
संग्रह - फैसले का दिन
अनुवाद - श्रीकांत वर्मा
प्रकाशक - संभावना प्रकाशन, हापुड़, द्वितीय संस्करण - 1982
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