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रविवार, 24 नवंबर 2013

मणिसर्प (Manisarp by Shrikant Verma)

मेरी बांबी से तुम ले गये 
मेरी मणि हर कर l 
मेरी - 
अनुभूति खो गयी है
अनुभूति खो गयी है 
अनुभूति खो गयी है !
अर्थहीन मन्त्रों-सा पथ पर मैं फिरता हूं 
अंधियारे की झाड़ी झुरमुट में 
लटक,
अटक,
पत्थर पर फण पटक 
रहता हूं l 
मणि के बिना मैं अंधा, अपाहिज सांप हूं l 
मेरी - 
अनुभूति खो गयी है !
अनुभूति खो गयी है !!
शब्द मर गये हैं, आवाज़ मर गयी है l 
डोल रहे शब्दहीन गीत हवा में जैसे 
वंशी की बिछुड़पन में    
प्राणों की राधा की लाज मर गयी है l 
मेरी -
अनुभूति खो गयी है ! 

मणि बिन मैं अंधा हूं l
मणि बिन मैं गूंगा हूं 
मणि बिन मैं सांप नहीं l 
मणि बिन मैं मुर्दा हूं l 

ठहरो, ठहरो, ठहरो,
मेरी बांबी मत रौंदो अपने पांवों से l 
मुझमें अब भी विष है l 
मेरा विष ही मणि बन मुझे पथ दिखायेगा l 
मेरे विष की थैली 
रत्ना, मणिगर्भा है l 
मणि लेकर मुझसे, मुझ पर मत कौड़ी फेंको l
दूध का कटोरा मत मेरे आगे रक्खो l 
विष को लग जाएगा दूध 
ज़हर मेरा मर जाएगा l 

मेरे फुफकारों की लहू की त्रिवेणी में 
डूबेंगे तीर्थ सभी 
चर्बी के पंडों के l 

मेरे दंशन से ये सोने की मुंडेरें नीली पड़ जाएंगी -
तुमने मेरी मणि को 
उल्लू की आंख बना रक्खा है l 
लेकिन मेरे विष को कैसे पी पाओगे ?
मेरी ही केंचुल से मुझी को डराओगे ?

सम्हलो ! जिन सांपों को दूध पिलाया तुमने 
मैं उनसे भिन्न हूं-
मैं अपनी मणि वापिस लेने को आया हूं l 

मैं मणि का स्वामी हूं l 
मैं मणि का  स्रष्टा हूं l 
मैं मणि का रक्षक हूं l 
तक्षक हूं, तक्षक हूं l  

कवि - श्रीकांत वर्मा 
संग्रह - भटका मेघ
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1983

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