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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

अक्टूबर (October - section I by Louise Glück)

फिर से शीतऋतु, फिर ठण्ड

क्या फ्रैंक फिसला नहीं था बर्फ पर

क्या उसका ज़ख्म भर नहीं गया था? क्या वसंत के बीज रोपे नहीं गए थे

 

क्या रात खत्म नहीं हुई थी

क्या पिघलती बर्फ ने

भर नहीं दिया था तंग गटर को

क्या मेरी देह

बचा नहीं ली गई थी, क्या वह सुरक्षित नहीं थी

क्या ज़ख्म का निशान अदृश्य बन नहीं गया था

चोट के ऊपर

दहशत और ठण्ड

क्या वे बस खत्म नहीं हुईं, क्या आँगन के बगीचे की

कोड़ाई और रोपाई नहीं हुई

मुझे याद है धरती कैसी महसूस होती थी, लाल और ठोस

तनी कतारें, क्या बीज रोपे नहीं गए थे

मैं तुम्हारी आवाज़ सुन नहीं पा रही हूँ,

हवाओं की चीख के चलते, नंगी ज़मीन पर सीटीयां बजाती हुई

मैं और परवाह नहीं करती

कि यह कैसी आवाज़ करती है

मैं कब खामोश कर दी गई थी, कब पहली बार लगा

बिल्कुल बेकार उस आवाज़ का ब्योरा देना

वह कैसी सुनाई पड़ती है बदल नहीं सकती जो वह है---

क्या रात ख़त्म नहीं हुई, क्या धरती महफूज़ न थी

जब उसमें रोपाई हुई

क्या हमने बीज नहीं बोए,

क्या हम धरती के लिए ज़रूरी न थे,

अंगूरबेल,क्या उनकी फसल काटी नहीं गई?     

  • अमेरिकी कवयित्री - लुइज़ ग्लुक, 2020 की साहित्य की नोबेल पुरस्कार विजेता 
  • अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अपूर्वानंद 

 स्रोत -    https://poets.org/poem/october-section-i

बुधवार, 8 जुलाई 2020

रोटी, छड़ी और पापा (Roti, chhadi aur papa by Purwa Bharadwaj)

अभी दाल मखनी बनाई थी. रंग अच्छा आया. तुरत याद आया कि पापा कहते थे कि खाना चमकता हुआ होना चाहिए, एकदम माँ के हाथ के खाने की तरह. उन्होंने मुझे भी पास कर दिया था जब मैं कायदे की रोटी बनाने लगी थी. रोटी का किनारा माँ की तरह खड़ा करके खर सेंकने लगी थी तब. उनके लिए अच्छी रोटी, हल्की और खूब सिंकी हुई रोटी बनाना पाककला की कसौटी था. उसमें निपुण होने में मुझे थोड़ा वक्त लगा था. परथन अधिक लगा देने की वजह से भी पहले शायद मुझसे रोटी उतनी अच्छी नहीं बनती थी. भैया इन सब फ़िक्र से बेपरवाह था. उसे छुट्टी थी. हर घर की तरह.

आटा पिसाने के काम से भी भैया को छुट्टी थी. रानीघाट में अखिलेश बाबू के मकान में जब हम थे तो ठीक उसके सामने नीचे में आटा चक्की थी. रामदयाल जी के मकान में.  नहीं, असल में रामदयाल जी के चाचा फौजदार का मकान था वह. और उसी में रामदयाल जी की किराने की दुकान थी जहाँ से गेहूँ आता था. वहाँ खाता चलता था हमारे घर का और कई बार वे नगद उधार भी देते थे. पापा हमेशा कहते थे कि रामदयाल जी ने हमारी गाढ़े वक्त में बहुत मदद की है. उनके भांजे बासु की भी तारीफ करते थे जो आटा चक्की चलाता था. चक्की पर जमावड़ा लगा रहता था. मर्द और किशोर और छोटे बच्चे भी. समय लगता था आटा पीसने में. हम बच्चों के लिए कौतूहल का विषय था चक्की में पीछे जाकर हाथ डालकर आटे को हिलाना और पहले गेहूँ और फिर आटा तौलना.

माँ गेहूँ धोकर, सुखा कर अपने सामने आटा पिसवाती थी. पापा की पसंद के मुताबिक. थोड़ा मोटा और दरदरा. पापा को मैदे जैसा महीन आटा नहीं पसंद था क्योंकि उसकी रोटी चिमड़ी सी हो जाती थी. सो वो भी माँ का जिम्मा था. घर में गेहूँ की गुणवत्ता, आटे की पिसाई और उन सबका रोटी पर जो असर पड़ता है, यह गपशप के साथ खटपट का भी मुद्दा बनता था. हमलोग पापा महीन खवैया हैं, इतना कहकर सिर्फ आनंदित नहीं होते थे. कभी कभी खुद भी परेशान होते थे और उनको भी परेशान करते थे. लेकिन उनको झाँसा देना इतना आसान नहीं था. डालडा को घी कहकर कई बार हमने उनको धोखे से कुछ कुछ खिलाया है, लेकिन किसमें अदरख है किसमें मेथी किसमें अजवाइन यह वे पहले कौर में पकड़ लेते थे. मेरी बेटी इस मामले में एकदम अपने नाना पर गई है.

खैर, रोटी और कटोरी में कड़कड़ाया हुआ घी पापा की थाली में लंबे समय तक हमने देखा है. वे घी में रोटी बोर-बोर कर खाते थे. गुड़ ज़रूरी नहीं था कि हो ही. यह विलास माँ के दम पर ही था. जी हाँ, विलास ही कहना चाहिए. पापा क्लास जाने की तैयारी में जब नहाने जाते थे तो माँ का तवा चढ़ जाता था. उसी तरह रात में घूम-घामकर, गोष्ठी-मीटिंग करके जब पापा आते थे तब माँ दिन भर की थकान के बावजूद गरमागरम रोटी बनाकर परोसती थी.  यह सिलसिला बरसो बरस चला. रूटीन की तरह. यदा कदा माँ की खीझ देखकर पापा को टोका जाता था, लेकिन कभी गंभीरता से किसी ने नहीं लिया इसे. एक समय आया जब रात की रोटी बनाने का जिम्मा मेरा हुआ. तब पापा ने गरम रोटी की ख्वाहिश छोड़ दी. मुझे राजेंद्रनगर अपने घर भागना होता था. 

रानीघाट, गुलबी घाट और घघा घाट के बाद जब माँ-पापा को भैया बुद्ध कॉलोनी ले आया तो आटा पिसवाकर खाना सपना हो गया. चक्की इधर भी थी, मगर माँ अशक्त होती जा रही थी. अब पैकेट वाले आटे पर उतरना ही पड़ा. उसमें ब्रांड कौन सा होगा, यह पापा की पसंद पर निर्भर था और बीच बीच में बदलता भी था. फिर संजू-गुड़िया और मीरा के हाथ की रोटी पापा खाने लगे थे. मन से. कभी-कभी ही टोकते कि आज रोटी का किनारा कच्चा रह गया है थोड़ा या सींझने में कसर रह गई है. दिन की बनी रोटी ही रात को खा लेते थे. माइक्रोवेव घर में नहीं है तो नॉन स्टिक तवे पर गर्म करके. बिना घी के. या ठंडी रूखी रोटी गर्म की गई सब्ज़ी के साथ. परोसना माँ का काम था. 

धीरे-धीरे माँ की मांसपेशियों की तकलीफ बढ़ती गई और उसका चलना मुहाल हुआ तो वह सारा खाना गर्म करके थाली सजा देती थी और पापा खुद से अपनी थाली ले जाते थे. बाद में पापा न केवल अपना खाना गर्म करने लगे, बल्कि माँ की थाली भी लगाने लगे. यह बड़ा फर्क था जो कि अच्छा था. माँ को ग्लानि सी महसूस होती थी कि ऐसी नौबत आ गई कि पापा को मेरा काम करना पड़ता है. मैं उसको समझाती थी कि ठीक है जीवन भर तुमने पापा का किया है अब उनको करने दो. जेंडर, पितृसत्ता वगैरह वगैरह के साथ सामाजिक ढाँचे की बात करती थी. सोदाहरण. हालाँकि माँ-पापा को मालूम था सब.

लॉकडाउन में मीरा अहले सुबह आकर तीनों-चारों वक्त की रोटी बना जाती थी. पापा सुबह-शाम दो या एक रोटी का नाश्ता भी करने लगे थे. सुबह मीरा खिलाती उनको, दिन में गुड़िया, शाम को नंदन और रात को सोनू. एकाध दिन मैं मौजूद रहती तो भी उन्हीं से परोसने को कहते थे पापा. कोई न रहे तो ही मुझको परोसने देते थे क्योंकि उनको लगता था कि मैं उनका हिसाब किताब नहीं जानती हूँ. दिल्ली आ जाने के बाद वाकई महीनों बाद कुछ शाम घर में बिताने पर भला मुझे कैसे अंदाजा होता कि उनकी थाली में सब्ज़ी कितनी रखी जाएगी और दाल पहलवाली कटोरी में देनी है या दूसरी किसी कटोरी में. वह भी अधिक गर्म नहीं, बल्कि सुसुम ताकि रोटी डुबो कर आराम से वे खा सकें. बेटी का पराया हो जाना कितना परतदार होता है और कहाँ कहाँ चुभता है, यह शायद पापा को नहीं बताया मैंने. केवल झल्लाती थी उनपर.

मुझे चिढ़ होती थी कि जब देखो तो रोटी-रोटी. उन्होंने बाकी कुछ भी खाना धीरे-धीरे छोड़ दिया था. 29 अप्रैल की रात तीन रोटी और सब्ज़ी उनका घर का अंतिम खाना था. फिर ICU से निकलने के बाद अस्पताल के कमरे में 7 मई को उन्होंने सुनीता (भाभी) के हाथ की खिचड़ी 3-4 चम्मच खाई. दवाओं के अलावा अस्पताल में एकाध बार सत्तू घोलकर दिया, थोड़ा दूध दिया. बाकी पता नहीं कुछ दिया या नहीं! 7 मई को ही पापा ने कहा था कि दवा बंद होते ही घर चलेंगे. हम सोच रहे थे कि पापा कुछ ठोस खाएँगे-पीएँगे, घर की बनी रोटी-सब्ज़ी खाएँगे तो जल्दी ताकत लौटेगी. 

लेकिन ताकत न पापा की लौटी और न हमारी. 8 मई की दोपहर पापा दुबारा ICU में चले गए. मैं दिल्ली से चली. आज शाम दाल मखनी बनाते हुए मैं उस शाम को याद कर रही थी. बात-बात पर चीज़ें याद आती हैं. एक दिन संपादन का काम कर रही थी तो शब्द सामने आया “छड”. होना था छड़. दुरुस्त करते समय कई विकल्प आए जिनमें अंतिम विकल्प था छड़ी. उससे कौंधा पापा की छड़ी. खूबसूरत लकड़ी की छड़ी जो अरशद अजमल साहब ने खरीदकर मेरे घर पहुँचवाई थी. अगली लड़ी में याद आया कि पापा ने नहीं से नहीं ली छड़ी और आखिर गिर ही गए. वैसे गिरे तो अनगिनत बार. कभी हाथ में चोट लगती, कभी कंधे में. सर भी फूटा, उँगली भी कटी, मगर हर बार बचते रहे. एक केयरटेकर जबसे साथ रहने लगा राहत मिली, भरोसा बढ़ा. छड़ी न लेने का एक बहाना भी मिल गया उनको. आखिर 30 अप्रैल को ऐसा गिरे कि चले ही गए. क्यों पापा ? इतनी ज़िद ! छड़ी ले लेते तो शायद यह गिरना तो टल जाता! 

टलना और टालना एक अजीब शब्द है. एक में कई बाहरी कारक होते हैं और दूसरे में व्यक्ति विशेष की सक्रिय भूमिका. फिर भी अख्तियार से बाहर! और अब याद आ रहा है पापा का शब्दों से लगाव. वे कितनी बारीकी से शब्दों के प्रयोग पर बात करते थे. अभी होते तो शायद रोटी पर ही हम घंटों उनके मुँह से तरह तरह के किस्से सुन रहे होते. उनको अपनी बड़की चाची के हाथ की मकई की रोटी और लौकी की सब्ज़ी का नायाब जायका याद आता और फिर उसका विस्तृत बखान होता. या दाल मखनी पर पापा कहते कि मुझे न राजमा पचता है और न छिलके वाली उड़द की दाल. और इसे खाना भी हो तो भात के साथ खाओ, रोटी के साथ नहीं! 




शनिवार, 4 जुलाई 2020

लॉकडाउन में मितुल (Mitul in lockdown by Purwa Bharadwaj)


एक बच्चा है. कहिए कि नौजवान है. 22 साल का. नाम है मितुल मल्होत्रा. पश्चिमी दिल्ली में रहता है. पिछले 15 दिनों से वह बहुत परेशान है. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के अंतिम साल में है. लेकिन अभी लॉकडाउन में ऑनलाइन पढ़ाई या परीक्षा उसके दिमाग में नहीं है. वह रोज़ाना आते जा रहे गाड़ी के चालान से त्रस्त है. 15 दिन में 12 चालान धड़ाधड़ आए. कभी 60 की जगह 64 की गति पर वह पकड़ा गया (एक बार 75 की स्पीड की गलती वह खुद मान रहा है), तो कभी ज़ेबरा क्रॉसिंग की ठीक पीछेवाली रेखा पर होने के बारे में उसे नोटिस आई. मध्यवर्गीय कार दौड़ानेवाले बच्चों से ज़रा अलग है वह जिनकी मर्दानगी सड़कों पर चिनगारियाँ छोड़ती रहती है.

माँ अंग्रेज़ी माध्यम के बड़े प्राइवेट स्कूल में जूनियर सेक्शन की हेड मिस्ट्रेस हैं. सारे विषय पढ़ाती हैं. उन्होंने एम. ए.किया है हिन्दी में. दिखने में हिन्दीवाली कतई नहीं हैं. पंजाबी मन-मिजाज़ का हिन्दीकरण नहीं हुआ है. इन दिनों ऑनलाइन पढ़ने-पढ़ाने में व्यस्त हैं. प्रबंधन में भी. साथ ही घर के काम में. उसमें भी रसोई में ज़्यादा वक्त जा रहा है जो कि पहले उतना नहीं जाता था. सहयोगिनी बालिका छुट्टी करके उड़ीसा के गाँव जा चुकी थी और प्लेसमेंट एजेंसी ने नई लड़की को अभी तक बहाल नहीं किया था. अब मितुल के लिए, उसके पापा के लिए, अपने लिए खाना तो बनाना ही है. पिता-पुत्र भी भरसक मदद करते हैं. वैसे मदद और जिम्मेदारी के बीच का अंतर उन सबको मालूम है.  

फिलहाल मितुल के परिवार को रेस्टोरेंट और ढाबे से खाना उपलब्ध नहीं है. अपने किराये के घर की ‘एग्जॉस्ट फैन’ और चार बर्नर वाले गैस चूल्हे से सज्जित आधुनिक रसोई में मितुल की माँ लॉकडाउन का शुक्र मनाती हुई जब तब जुटी रहती हैं. यह शुक्र मनाना शायद जान है तो जहान है, यह सोचकर ही मुमकिन है. वरना रसोई से छुट्टी स्कूल की छुट्टी से अधिक मायने रखती है. उनकी रसोई में चिमनी वाला चूल्हा नहीं है और पुराने चूल्हे का पेंट भी उखड़ने पर है. इन दिनों कभी कभी सब्ज़ी छौंकते हुए उनके मन में कौंधता है कि उनके खाते से दो-दो कार का EMI जाना है. कैसे क्या होगा ? इस महीने उनको 30% ही तनख्वाह मिली है. तनख्वाह 30% कटी नहीं है, मिली है. संपन्न, प्रतिष्ठित स्कूल के पास तर्क है कि बच्चों से फीस नहीं आ रही. अब प्रबंधन से कौन कहे कि अपने मुनाफे में से शिक्षकों को भी दे, केवल तृतीय-चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को नहीं. कोई माने या न माने श्रेणियाँ कहाँ और क्यों बनती हैं, इसका तीखा अहसास इस तबके को हो रहा है. फिर भी ‘शिष्टता’ ने रोक रखा है कुछ भी बोलने से.

शनिवार, 20 जून 2020

तृप्ति (Tripti by Purwa Bharadwaj)


इस बार भी पटने से आम आया. दूधिया मालदह. अबकी माँ ने भेजा, पापा ने नहीं. रात को 11 बजे के करीब मैंने एक आम खाया. डायबिटीज़ के बावजूद. आम खाकर तृप्ति हुई. पापा यही पूछते थे कि तृप्ति हुई या नहीं. और उसके बाद उनका अगला सवाल होता था कि आम में डंक है कि नहीं. तो वह डंक नहीं था. फिर भी मैंने नाक डुबाकर खाया. छीलकर, काटकर और तश्तरी में रखकर काँटे से नहीं खाया. 

पहले पापा मुसल्लहपुर हाट जाकर आढ़त से सैंकड़े के हिसाब से आम लाते थे. उसके भी पहले जब बाबा थे तो अपनी गाछी का आम आता था. टोकरी भर-भर कर. जो आम कचगर होता था उसे चौकी के नीचे बोरे से ढँककर रख दिया जाता था. पापा और माँ बड़े जतन से बीच-बीच में देखते रहते थे कि आम तैयार हुआ या नहीं. जो पका होता था वह तुरत बाल्टी में डाल दिया जाता था. घंटों पानी में रहने के बाद बाल्टी भर आम लेकर हमलोग बैठते थे. रानीघाट वाले घर में. आँगन में. ठीक नल और नाली के पास. बीजू आम हुआ तो चूस चूस कर खाया जाता था. लँगड़ा दाँत से छिलका छीलकर. गिनती नहीं होती थी. विराम लगता था तृप्ति होने पर. 

गुरुवार, 11 जून 2020

उम्मीद (Ummeed by Purwa Bharadwaj)

कल मैंने बिंदी लगाई. कल या परसों कान में झुमके भी पहनने लगूँगी. उम्मीद है कि जीवन धीरे-धीरे सामान्य हो जाएगा. अनुपस्थिति के बावजूद. फिर फिरोज़ी और गुलाबी रंग भी वापस आ जाएगा जो पापा को मुझपर पसंद था. मेरी साड़ी की तारीफ़ वे अब नहीं करेंगे, मगर नई साड़ी भी खरीदी जाएगी. यह सब क्या है ? जीवन का चक्र है ? परिस्थिति के मुताबिक़ ढलना है? समय के साथ आगे बढ़ना है ? या उम्मीद से नाउम्मीद होना है !

जब 9 मई को मैं मुज़फ्फरपुर होते हुए पटना में दाखिल हो रही थी तो लग रहा था कि गाँधी सेतु के बाद का रास्ता गड्डमड्ड हो रहा है. पहली बार लगा कि अपने शहर में नहीं, किसी और जगह से गुज़र रही हूँ. दिमाग पर ज़ोर देते हुए मैंने टैक्सी ड्राइवर को नालंदा मेडिकल कॉलेज, बहादुरपुर गुमटी होते हुए कंकड़बाग की तरफ बढ़ने को कहा. आगे चिडैया टांड़ पुल. फिर स्टेशन और अशोक सिनेमा वाली सड़क पर फ़्लाईओवर से उतर गई. अदालतगंज का वीनूजी का घर गुज़रा तो दम लौटा. तारामंडल पारकर इनकम टैक्स चौराहा आने तक आत्मविश्वास जाग गया. अब बुद्ध कॉलोनी और घर पहुँचने में कोई बाधा नहीं थी. यह भी मालूम था कि अस्पताल करीब ही है. ICU में मिलने का समय ख़त्म हो चुका था, फिर भी उम्मीद थी कि किसी भी तरह पापा से मिलना हो पाएगा. आखिर हम किसी भी सूरत में उम्मीद का दामन छोड़ना नहीं चाहते हैं. वही तो है जो जीवन को गति देता है.


उम्मीद एक बिंदु भर नहीं है. उसका पूरा 'स्पेक्ट्रम' होता है. इंद्रधनुष की तरह. किसी चटक रंग की तरह कोई उम्मीद घटाटोप में चमकती है तो कोई फीके रंग की तरह दबी-दबी रहती है. मगर अस्पताल जाते हुए, अगले तीन दिन सुबह-शाम ICU में पापा से 2-2 मिनट मिलते हुए और 12 मई की दोपहर के बाद हर पल किसी न किसी विशेषज्ञ डॉक्टर से हालचाल पता करते हुए उम्मीद इंद्रधनुषी नहीं रह गई थी. 'ब्लैक होल' की तरफ हम बढ़
रहे थे. इसका भान था. मानसिक रूप से सजग होते हुए भी पापा की क्लिनिकल रिपोर्ट गड़बड़ हो रही थी.

हम अब पुरउम्मीद होने का अभिनय नहीं कर सकते थे. जी हाँ, उम्मीद अभिनय की माँग भी करती है. हर बार नहीं, कई बार ज़रूर. यह अभिनय पूरे मन से, शरीर से किया जाता है ताकि उम्मीद का सिरा छूटे नहीं. अभिनय सायास भी किया जाता है ताकि उम्मीद पर टिका महल न टूटे. केवल मृत्यु के संदर्भ में नहीं या किसी रिश्ते के संदर्भ में नहीं. उम्मीद तो हर छोटी-बड़ी चीज़ को लेकर होती है. भौतिक-भावनात्मक-आध्यात्मिक हर क्षेत्र में. सवाल उठता है कि क्या हम उम्मीद बने रहने को लाभ के रूप में देखें और उम्मीद टूटने को हानि के रूप में ? ऐसे में उम्मीद को बचाए रखने, जिलाए रखने को किया गया अभिनय क्या कहलाएगा?

12 मई की सुबह में माँ पापा से मिल आई थी. नर्स ने करवट दिलवाकर उनको पुकारा था. उन्होंने आँख खोली. फिर माँ की ओर हाथ बढ़ाया. उम्मीद के साथ. चाहकर भी वह हाथ नहीं पकड़ पाई. उम्मीद को प्रत्युत्तर न मिले तो कैसा लगता है ? लेकिन पापा संभवतः स्थिति समझ रहे थे. वे निराश नहीं दिखे. उन्होंने माँ से जाने की एक तरह से इजाज़त ली. अपनी आवाज़ अवरुद्ध होने की बात इशारे से कही. माँ ने इस सर्वग्रासी अवरोध को उसी क्षण समझ लिया था. एक-दूसरे को उम्मीद दिलाने का प्रयास किसी ने नहीं किया. हम बिस्तर से दूर थे. उनको घर जल्दी आने को कहकर हम 2 मिनट में ही बाहर आ गए थे ताकि पापा के लिए किसी इन्फेक्शन के वाहक न बनें. यह केवल अस्पताल के सहायक गण का निर्देश ही नहीं था. हमारी चिंता भी इसमें शामिल थी. दिल्ली से आने और कोरोंटाइन होने का ठप्पा लगे होने के कारण मैं किसी भी दिन पापा को छू नहीं पाई थी.

उस दिन शाम में भैया को जब मैं कह रही थी कि जाकर मिल आओ पापा से तो वह तड़प गया. "क्यों भेज रही हो, मानो अंतिम बार पापा को देखने को कह रही हो!" वह लगातार अस्पताल में था और जब से मैं आई थी तो मुलाकात का अपना मौका मुझे दे दे रहा था. [कोविड 19 के भूत ने मुलाकात की अवधि से लेकर मुलाकातियों की संख्या सब पर नियंत्रण कर रखा था.] भैया पापा को अगले दिन भी देखने की उम्मीद लगाए बैठा था. उसे अपनी उम्मीद छूट जाने का डर था. हम जानते हैं कि बहुत बार दिल उम्मीद करे तो दिमाग टोकता है और दिमाग उम्मीद रखे तो दिल उसे पछाड़ देता है. कशमकश, उठापटक चलती है. कभी कभी लंबे समय तक. मगर बहुत जल्दी हमारा दिल-दिमाग एक सतह पर आ गया. भैया अंदर जाकर देख आया पापा को, हालाँकि उस समय उनका कपड़ा बदला जा रहा था. तब भी पर्दे के बीच की फाँक से उसने देखा. लावण्य (भतीजा) व्याकुल होकर कई बार अपने बाबा के पास गया. (स्थिति ठीक नहीं थी तो अब ICU वाले रोक नहीं रहे थे, बल्कि बुला-बुलाकर 'अपडेट' कर रहे थे.) वह डॉक्टर से बात करता रहा. रिपोर्ट पढ़ता रहा. दवा की खुराक का मतलब इंटरनेट पर ढूँढ़ता रहा. वही था जिसकी आँखों में पापा अंतिम बार कैद हुए. मशीन चल रही थी, पापा भी चल रहे थे.

हमने रात साढ़े नौ बजे के आसपास पापा के 'कार्डियक अरेस्ट' की खबर को ICU के बाहर की सीढ़ियों पर सुना. मेरी भाभी बेहाल थी. लावण्य की शादी में पापा के नाचने की इच्छा को वह किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहती थी. नंदन (पापा की देखभाल करनेवाला) को पापा ने कहा था कि मुझे छोड़कर नहीं जाना, सो वह कहने पर भी वापस अपने गाँव (कुल्हड़िया के पास) नहीं गया था और ICU के शीशे के भीतर से पापा के बिस्तर के करीब डॉक्टर-नर्स की भीड़ पर नज़र जमाए हुए था. शरत (मौसेरा भाई) हर बार की तरह इस संकट में भी मुस्तैदी से हाज़िर था और स्थिति सँभाल रहा था. दो मंज़िल की सीढ़ियाँ फलाँगते हुए इमरजेंसी की दवा लाकर लावण्य ICU में पहुँचा आया. अपूर्व और बेटी को मैंने सूचित किया. सब अपनी साँस की आवाज़ को भी दबा देने में जुटे हुए थे. 10 बजकर 3 मिनट पर माँ का फोन आया कि बेटा कब आओगी अस्पताल से. भरसक संयत आवाज़ में मैंने कहा कि आ रहे हैं माँ. उसकी उम्मीद को निर्ममतापूर्वक कैसे तोड़ा जा सकता था!

कितनी भी तकलीफदेह हो यह प्रक्रिया, लेकिन उम्मीद को तोड़ना पड़ता है. डॉक्टर जब वस्तुस्थिति से अवगत कराते हैं तब वे यही कर रहे होते हैं. यह राजनीतिक काम है. सूचना का अधिकार तभी तो राजनीतिक अधिकार है. यह तथ्य और उम्मीद को अलग अलग कर देता है. इस उम्मीद में भुलावा भी रहता है, जिसकी परत को हम प्याज़ के छिलके की तरह अलग कर देना चाहते हैं. छल-कपट के अलावा बाज़ार की भी भूमिका होती है. जब तंत्र से जुड़ा होता है तथ्य तो उस तक पहुँचना आसान नहीं होता. फिर तथ्य और सत्य भी एकरंगा या एकआयामी नहीं होता. उसमें इतने कारक काम करते हैं ! यहाँ तथ्य एक था, सत्य एक था. उससे उम्मीद को पृथक् कर दिया गया था. माँ का फोन आने के बाद शायद लावण्य खबर लेकर आया. क्रम ठीक से याद नहीं. इतना साफ़ था कि उम्मीद का तार धीरे-धीरे टूटता जा रहा था. किसी की न मंशा पर संदेह था, न किसी पर दोषारोपण था और न पापा पर हिम्मत छोड़ने का आरोप था.

भैया ICU में था. हम एक एक करके भीतर गए. नर्स और अन्य कर्मचारियों की इस हिदायत के साथ कि भीतर कोई शोर नहीं होगा. पापा ख़ामोश थे और हम ख़ामोशी बनाए रखने को बाध्य थे. नाउम्मीदी यों भी बेआवाज़ कर देती है. फिर भी भैया का वह वाक्य कौंध रहा था कि "माँ कहती है कि सब चनपुरिया (हमारे गाँव का नाम चाँदपुरा है) खूब गरज़ता है...गलत कहती है. इच्छा हो रही है कि पापा को कहूँ एक बार गरज कर दिखाइए न!" पापा कभी कभी सप्तम सुर में बोलते थे वह सबको अखरता था, लेकिन अभी हम सब बेतहाशा वह स्वर सुनने की उम्मीद कर रहे थे. अच्छे-बुरे, सही-गलत से परे होती है उम्मीद. होने की संभावना उसे अर्थ देती है. परंतु अब वह निरर्थक थी.

इसका यह मतलब नहीं है कि उम्मीद केवल यथार्थ और वर्तमान से जुड़ी होती है. जब समानार्थी शब्द आशा का इस्तेमाल करते हैं तो कल्पना उसका अंग होती है और वह भविष्योन्मुखी होती है. अपेक्षा भी सहचरी होती है. लेकिन नाउम्मीदी में क्या होता है ? वर्तमान और भविष्य दोनों एकमेक हो जाते हैं और उनपर काला पर्दा पड़ जाता है. तब भी इंसान निश्चेष्ट नहीं होता और उसे चीरकर आगे बढ़ जाता है. हम बाहोश थे और माँ को बताने के अलावा पापा को घर लाने की तैयारी में लग गए थे.

रात भर पापा घर में थे. चेहरा शांत. दाहिने हाथ की गौरवर्ण उँगलियाँ इस मुद्रा में थीं मानो कुछ उठाएँगे. थोड़ा-थोड़ा वैसे जैसे कौर उठानेवाले हों. बायाँ हाथ बगल में था. पैर एकदम सीधे थे जो अस्वाभाविक होने के कारण खटक रहा था. मेंहदी रंग का कुर्ता-पाजामा आयरन किया हुआ था, लेकिन हमको तो पापा के उठने-बैठने से पड़ी सिलवटों की तलाश थी. पूरी रात सारी बत्तियाँ जली थीं. काश पापा हमेशा की तरह कहते कि बत्ती बुझा दो, आँखों में रोशनी चुभ रही है. भैया, भाभी, लावण्य, नंदन, सोनू, गुड़िया चारों तरफ थे. माँ व्हील चेयर से झुककर उनका चेहरा और सर सहलाना चाह रही थी तो उसे पापा की ऊष्मा वापस आने की झूठी उम्मीद भी नहीं थी. दोस्त-पड़ोसी जा चुके थे. बेबी मौसी को भी आग्रह करके हमने भेजा था क्योंकि भोर में माँ के साथ और कौन रहता! दिन-रात का साथ देनेवाले पापा तो अब नहीं थे. यह सच्चाई थी, नाउम्मीदी नहीं.

महीने भर बाद मैं दूर दिल्ली में बैठी सोच रही हूँ कि अब किस बात की उम्मीद करूँ. उम्मीद करने की पात्रता से वंचित हूँ.

रविवार, 3 मई 2020

प्रेमकहानी सोनाली की (Love story by Purwa Bharadwaj)

दो रोज़ पहले मैंने एक फ़िल्मी कहानी सुनी.प्रेम कहानी.यों प्रेम कहानी में रोमांच होने के लिए थोड़ा फ़िल्मीपन ज़रूरी है.

बहरहाल, एक 'रौंग नंबर’ लगता है. बैंगलोर से सिलीगुड़ी. अंतिम संख्या के उलटफेर ने एक प्रेम कहानी का आगाज़ किया. बांग्ला 'टोन' में टूटी फूटी हिन्दी एक बैंगलोर निवासी बिहारी को भा गई. अब अक्सर बात होने लगी. 'बेसिक' फ़ोन के एक छोर पर थी सोनाली लोहार और दूसरे छोर पर था संजय गुप्ता. 

सोनाली कभी स्कूल नहीं गई. तीन भाई-बहन में सबसे बड़ी बेटी थी. पिता बानू उर्फ़ शंकर लोहार दिहाड़ी मज़दूर थे और माँ पूर्णिमा घरों में काम करती थी. शंकर के पिता काम के तलाश में राँची से आकर सपरिवार सिलीगुड़ी में बस गए थे. जीवन मुश्किल था, मगर चल रहा था. शंकर के दो भाई आस पास ही रहते थे. बहन भूटान में ब्याही थी. गाड़ी से माल उतारने-चढ़ाने का काम करते करते कब सोनाली के पिता कैंसर से ग्रस्त हो गए, पता ही नहीं चला. सबसे छोटी बहन जो कि सोनाली से 10-11 साल छोटी है, उसके जन्म के तकरीबन 6 महीने बाद ही वे चल बसे. 

8-9 साल की थी सोनाली तो घर के सामने सड़क पार के स्कूल की टीचर के घर उनकी बेटी को खेलाने का काम करने लगी. तब से काम कर रही है. अभी पहली बार लॉकडाउन में उसका काम छूटा है.टीचर का घर स्कूल के अहाते में ही था. वे अच्छी थी. उन्होंने सोनाली को लिखना-पढ़ना सिखाया. भले ही स्कूल में नाम नहीं लिखाया उसका, मगर उस पढ़ाई को उसने कसकर अपनी मुट्ठी में पकड़ कर रखा. उसने कहा कि मुझे ज्ञान चाहिए था, डिग्री नहीं. हालाँकि कोई भी औपचारिक डिग्री न होने का घाटा उसने सहा है. कमाकर उसने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को पाँचवी तक पढ़ाया.और छोटी बहन तान्या को नौवीं तक. आगे दोनों का न मन लगा पढ़ाई में, न उसको जारी रखने का फ़ायदा उन्हें नज़र आया.

टीचर का तबादला अपने घर से दूर हो जाने के कारण सोनाली का काम छूट गया. वहाँ रहते हुए ही उसने सिलाई का काम भी सीखा ताकि जीविकोपार्जन हो सके. मगर बुटीक में रोज़गार मिलना मुश्किल था. तब उसने किसी के कहने पर अपनी कमाई के पैसे से पार्लर का काम सीखना शुरू किया. जल्दी ही पार्लर में हेल्पर लग गई और फिर 'ब्यूटीशियन' बन गई. 

घर तब तक काले प्लास्टिक और कच्ची ईंटों का था. पूर्णिमा ने दिल्ली का रुख़ किया ताकि पक्का घर बनाने का सपना पूर्वा कर सके और बिन बाप के बच्चों को छत दे सके. काम दिलानेवाले और देनेवाले ठीक निकले सो वह नियम से बच्चों को पैसे भेजने लगी. सोनाली बड़ी हो रही थी और ज़िम्मेदारी संभाल रही थी. उसकी बचत, माँ की पगार और मौसी के सहयोग ने घर का ढाँचा खड़ा किया. लेकिन दिल्ली में माँ किसके साथ रह रही है, यह चर्चा का विषय था. औरत का कमाना, बग़ैर पति के आसरे रहना, वह भी घर से सैंकड़ों मील दूर महानगर में! औरत का चरित्र महानगर के चरित्र की छाया में और अधिक संदेह के घेरे में था. उसमें भी घरेलू काम करनेवाली प्रवासी औरत के पास मोल तोल की ताक़त और कम थी. छोटी मोटी मदद के लिए वह मालिक पर निर्भर थी या अपने इलाके की हमपेशा सहेलियों पर. बड़ी मदद की किसी से उम्मीद नहीं थी. इसलिए तीन साल बाद पूर्णिमा दिल्ली से सिलीगुड़ी अपने घर को जोड़े रहने के लिए लौट आई.

घर की छत और दीवारें मज़बूत हो गई थीं, लेकिन इत्मीनान नहीं था. सोनाली को पार्लर से लौटते लौटते अक्सर रात के 9-9.30 हो जाते. भाई की चीख-चिल्लाहट बढ़ती ही जा रही थी. तोहमत पर तोहमत. आखिर उसने घर छोड़ दिया. माँ के लौट आने से छोटे भाई-बहन के ज़िम्मेदारी भी कम हो गई थी. इसलिए घर से निकलते समय उसके मन पर बहुत बोझ नहीं था. उम्र 21 के करीब हो गई थी. उसे अपना जीवन सँवारना था. एक परिचित ने आसरा दिया और एक मौसी ने उसका मन समझा.

उसी दौरान सोनाली ने फ़ोन खरीदा और टेक्नोलॉजी ने उसका दायरा वसी किया. मनोरंजन और सुकून का पल भी दिया. तभी टकरा गई संजय से. दो-ढाई साल दोस्ती को गहराने में लगा. फिर लड़का डरते डरते बंगाल पहुँचा. नुक्कड़ पर मुलाक़ात हुई. मौसी ने सहमति दी. सोनाली की हिम्मत बंधी. सिंदूर डलवाया और बिना माँ और भाई-बहन को बताए दिल्ली आ गई. लड़के पर भरोसा था और पीछे कुछ ऐसा नहीं था जिसे छोड़ने का मोह हो. किस्मत आजमानी थी. हाथ में हुनर था. सोचा कि मिलकर कमा-खा लेंगे. ननद के घर आई और फिर बिहारी रीति-रिवाज से शादी करके वह बस गई. यह 2014 के नवंबर की बात है.

दिल्ली ने पार्लर के काम को पक्का करने का मौका दिया. सोनाली के हाथ में सफाई थी और व्यवहार अच्छा था. पति ने सहयोग किया जो बैंक्वेट में काम करने लगा था. गृहस्थी चल पड़ी थी. अब तक घर पर लोगों को उसकी शादी की खबर हो चुकी थी और मौसी ने सबको यकीन दिला दिया था कि लड़की खुश है. दो साल गुजर चुके थे. 

अब एक बार फिर घर छोड़ने की बारी सोनाली की माँ की थी. पूर्णिमा लोहार की. सोनाली के शादी का समाचार जब भाई ने सुना था तो उसने ईंट चलाकर अपनी माँ का सिर फोड़ दिया था. छोटी सी तान्या को याद है कि कैसे मौसी के साथ वह माँ को अस्पताल लेकर गई थी. अंत में बेटे की गाली-गलौज और बुरे बर्ताव से आजिज़ आकर एक एजेंट के ज़रिए वह जयपुर पहुँच गई. सुनने में आया कि तीस हज़ार रुपए में एजेंट ने साल भर के लिए पूर्णिमा को किसी के हाथों बेच दिया. ज़रखरीद गुलाम की तरह वह रात-दिन उस व्यक्ति के घर का काम करती रही और पछताती रही. इस बार उसके काम ने, शहर ने, मालिक ने धोखा दिया. किसी तरह बेटी से उसका संपर्क हुआ. बेटी ने पति को साथ लिया और पुलिस की मदद से जयपुर पहुँच गई. सोनाली माँ से मिल पाई और फिर उनको वहाँ से निकालकर दिल्ली भी ले आई.

सोचा अब थोड़ा और चैन मिला. माँ से अलग होने का दुख जो सीने में दबा था उस पर मरहम लगा. छह महीने बीत गए. अब माँ को पोता होने की खबर मिली और वो वापस सिलीगुड़ी चली गई. घर बेटे-बहू से ही तो होता है, यह माननेवाली पूर्णिमा को बेटी के घर का आराम छोड़ने में रत्ती भर अफ़सोस नहीं हुआ. एक वजह यह भी थी कि बेटी-दामाद की अच्छी देखभाल के बावजूद समधी यानी सोनाली के ससुर गोपाल गुप्ता का रवैया तकलीफ दे रहा था. मज़ाक के रिश्ते के बावजूद उनका यह कहना कि चलो मेरे साथ घर बसा लो, पूर्णिमा के गले नहीं उतर रहा था. वह अकेली थी, मगर इससे क्या!

विधुर था गोपाल. बरसों पहले पत्नी की मौत हो गई थी. 15-20 साल से दिल्ली में है. राजमिस्त्री का काम करते हुए उसने अपने दो बेटों और बेटी को पाला. बाद में सिक्योरिटी गार्ड का काम करने लगा. सुना कि रात में नींद की झपकी लेते हुए सीसीटीवी फुटेज में दिख गया तो नौकरी जाती रही. फिलहाल दिल्ली में ही है. शरीर से अशक्त नहीं है, मगर काम मिलता नहीं है. या बेटे-बहू के शब्दों में काम करना नहीं चाहता है. टहलते हुए, पोती के साथ घूमते हुए मैंने उसे देखा है.

इस बार सोनाली अपनी माँ को घर सिलीगुड़ी पहुँचा आई और वापसी में देखभाल करने के लिए अपनी छोटी बहन तान्या को ले आई. तान्या नाम उसी का दिया हुआ है. वैसे घर में पहले सब उसे भारती पुकारते थे. तान्या की एक आँख जन्म से खराब है. तीक्ष्ण बुद्धि, चपल ज़ुबान और फ़ोन की शौक़ीन तान्या के लिए दिल्ली जीजू का घर था. 

अब घर के सदस्य चार हो गए. सिद्धि का जन्म हुआ. लेकिन बंगाल में माँ चल बसीं. शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गई थी वह. बेटा मार-पीट भी करता था. बेटियों को लगा कि किसी ने जादू-टोना कर दिया है. इलाज का ठिकाना न था. सोनाली माँ की आर्थिक मदद कर रही थी, लेकिन उनके तन-मन की चोट का क्या करती ! सोनाली के लिए माँ बनना और माँ को खोना लगभग चार महीने के आगे-पीछे हुआ. ज़िंदगी को पटरी पर से सोनाली ने उतरने नहीं दिया. 8 महीने की गर्भवती थी तब तक पार्लर में 8-9 घंटे जुटकर काम किया. वहाँ ग्राहक बनने लगे तो प्राइवेट काम भी शुरू कर दिया था. इसलिए प्रसव के बाद पार्लर की नौकरी छोड़ दी. बहन का सहयोग मिल रहा था. पति का भी. पड़ोस की नेपाल वाली भाभी का भी. उसने अपना काम 'फुलटाइम' शुरू कर दिया. खुश थी. ससुर बीच-बीच में आकर रहते थे तो थोड़ी खिटपिट होती, मगर सब सही चल रहा था.

पिछले साल टीबी ने खुशहाल प्रवासी कामकाजी परिवार पर पहला हमला किया. संजय का काम छूट गया. शादी का मौसम जाता तो यों भी काम में फ़ाका पड़ता था, लेकिन तनख्वाह 11-12 हज़ार थी तो काम चल जाता था. सोनाली भी 10-12 हज़ार महीने के कमा लेती थी. तान्या भी घर में काम करने लगी जिससे मकान की सहूलियत मिल गई और तनख्वाह भी आने लगी. टीबी ने चरमरा दिया होता घर, परंतु ठेले पर अंडा-ब्रेड बेचने का ख़याल आया. इसमें पुलिस के डंडे, रिश्वत, फुटपाथ का रंगदारी टैक्स सबको झेला. ठेला उलटा दिया गया. सामान तोड़ा गया. कुर्सी पलट दी गई. महीने भर बाद दूर किसी एक और रेड़ीवाले ने मोमो बेचने का सुझाव दिया. ब्यूटीशियन बीवी ने मोमो बनाने का जिम्मा लिया और मियाँ के साथ मिलकर चिकेन मोमो  और वेज मोमो बनाने लगी. टीबी से उबरे पति का काम जमाने की चिंता में जुटी सोनाली समय निकालकर अपने क्लाइंट का काम भी कर आती. बीच बीच में ब्राइडल मेकअप का एडवांस कोर्स भी. बहुत महँगा कोर्स करने की हालत नहीं थी, नए से नए ब्यूटी प्रोडक्ट की जानकारी रखना उसकी पेशागत अनिवार्यता है, साथ-साथ दिलचस्पी का भी. वह अंग्रेज़ी में सामान का नाम आसानी से पढ़ती है और सही तरीके से लोगों को ब्यूटी टिप्स भी देती है.

गोपाल गुप्ता साथ रहने लगे थे बहू सोनाली के. फ्रिज, कूलर, टीवी, गैस चूल्हा, मिक्सी, सेकेंड हैंड मोटरसाइकिल, तीन-तीन स्मार्ट फोन के साथ फैशनेबल कपड़े और हेयर स्टाइल को देखकर उसकी आर्थिक स्थिति ठीकठाक होने का पता चलता है. वह गर्व से बताती है कि एक-एक सामान दोनों की मेहनत का है. दिक्कत है कि मकान बहुत छोटा है. एक कमरे के इस मकान में छत ने सोनाली के ससुर को गर्मी में जगह दी.  सर्दी में बेटे-बहू-पोती और बहू की बहन के साथ किसी तरह वे उसी कमरे में गुज़ारा करते. बीच-बीच में बेटी और दूसरे बेटे के पास वे चले जाते थे. मन ऊबता या चिढ़ता तो. दिल्ली में ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदने के लिए उन्होंने अपने गाँव की ज़मीन बेची. तीनों बच्चों में रकम बँट गई, लेकिन बंगालन बहू पर अक्सर दोष मढ़ा जाता. जादू-टोना से लेकर खाना-पानी न देने का आरोप लगता रहता. वृद्ध व्यक्ति की अपनी असुरक्षा है, ससुर का रुआब है, पैसे का दम है तो बेटे-बहू पर निर्भरता की कसक भी. 

तभी आ गया कोरोना काल. उसके साथ लॉकडाउन यानी तालाबंदी. साथ में घरबंदी. सोनाली का काम छूटा. संजय का तो छूट ही चुका था. जमा-पूँजी कुछ ख़ास है नहीं. एक महीना कट गया, लेकिन तनाव अब चरम पर है. बेटी को प्ले स्कूल में डालना था, मगर उसका फॉर्म धरा का धरा रह गया. उसे स्कूल भेजकर काम पर फोकस करना रह गया. टीबी की दवा की खुराक ख़त्म हो गई है, लेकिन पौष्टिक खान-पान से भरपाई करना मुश्किल हो रहा है. नतीजा आजकल सोनाली का पूजा-पाठ बढ़ता जा रहा है. हर शाम नियम से शंख बज रहा है. जनता कर्फ्यू में भी ज़ोरदार बजा था, जबकि सरकार का फरेब भी समझ में आता है. उसमें ससुर के ताने-तिश्ने ने उसके धीरज की परिक्षा ले ली है. पड़ोसी से शिकायत करके अपने बच्चों को नीचा दिखाने के आरोप के साथ अब चोरी का आरोप भी बहू का है. बाहर आने-जाने पर पाबंदी लगाने के कारण बुजुर्गवार छटपटा रहे हैं.

घरेलू झगड़े की नौबत यह आ गई है कि ससुर पुलिस बुला लाए. कहा कि मार-पीट की जा रही है उनके साथ. खाने की तलाश में बाहर निकलते हैं या मन को शांत करने के लिए, पता नहीं. अब घरवाले के साथ आस-पड़ोस भी वायरस का स्रोत वे न बनें, इस आशंका में हैं. खाने की व्यवस्था उनके लिए कोई भी कर दे सकता है, लेकिन वे कहते हैं कि मैं भिखारी नहीं हूँ. बंगालन बहनों के चंगुल में उनका राम जैसा बेटा फँस गया है, यह दुहराते हुए वे रामायण की कथा से उदाहरण लाते रहते हैं. बेटे-बहू का कहना है कि वे बच्ची की मौत की कामना कर रहे हैं. मामला उलझता ही जा रहा है. 

दबे स्वर में सोनाली एक कमरे में रहने की दिक्कत, ससुर द्वारा मोबाइल पर ‘गंदी फोटो’ देखने की आदत, जवान होती जा रही छोटी बहन की हिफाज़त इन सब चिंताओं के बारे में बात करने लगी है. लॉकडाउन ने उसके धीरज और खुश रहने की आदत को ग्रसना शुरू कर दिया है. वो नहीं चाहती कि कोई परिस्थिति उसका पाँव बाँधे. 29-30 साल की उम्र है अभी उसकी. सिद्धि के लिए और तान्या के लिए, संजय के लिए उसे खूब कमाना है. हाल में जब वह अपनी छत पर केप्री पहन कर ऐरोबिक्स कर रही थी और संजय उसे निहार रहा था तो मैं इस प्रेम कहानी के बारे में सोचने लगी.   

मैं इन सबको समझने की कोशिश कर रही हूँ. कितनी परतें हैं ? समाज की बनावट, परिवार की बनावट, सुविधाओं का ढाँचा और राज्य की जिम्मेदारी - क्या क्या देखें ? बिखराव कहाँ कहाँ और कैसे कैसे आ रहा है इन सबके बीच प्रेम को बचाने की भी जुगत करनी होगी.


बुधवार, 20 नवंबर 2019

अली, काम का पक्का और बात का भी पक्का (Ali Electrician by Purwa Bharadwaj)



आज की शाम बड़ी बुरी थी. खबर मिली कि अली, हमारा इलेक्ट्रिशियन, मेरा मददगार नहीं रहा. उम्र मात्र 33 साल. खुशमिजाज़, काम का पक्का और बात का भी पक्का.

2009 में मैं जब दक्षिणी दिल्ली के शाहपुर जाट मोहल्ले से दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर के आवास में आई थी रहने तो खासी दिक्कत हुई थी. कोई कायदे का काम करने को नहीं मिलता था. न घरेलू काम के लिए न किसी और काम के लिए. मैं लगातार दक्षिणी दिल्ली और उत्तरी दिल्ली की तुलना करती रहती थी. (उसके पहले पटना और दिल्ली की तुलना किया करती थी) खीझती रहती थी कि उत्तरी दिल्लीवाले बेकार हैं. ऐसे में दो लोग ऐसे मिले जो भरोसे के निकले. काम में भी अच्छे थे और बात-व्यवहार में भी. एक था अली और दूसरा बॉबी जो कपड़े इस्त्री करने के साथ न केवल मेरे घर की, बल्कि पूरी कॉलोनी की चौकसी करता है.

अली था. अब है नहीं. केदारनाथ सिंह जैसी भाषा तो नहीं है मेरे पास, मगर कहना चाहती हूँ कि "जाना हिन्दी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है" तो "है" से "था" में बदलने की प्रक्रिया और भी मारक है. लगभग 10 साल से अली को देखती आ रही हूँ. चुस्त, हर तरह का काम जाननेवाला, जुगाड़ लगानेवाला. फोन करो तो फट से आ जाए. भले ही काम 50 रुपए का ही क्यों न हो. मोटरसाइकिल चलाता था. खुश रहता था. बिजली के काम के अलावा काँटी ठोंकने से लेकर वाशबेसिन का पाइप बदलने, नल की टोंटी ठीक करने, रसोई की नाली में जाली लगाने तक का सारा छोटा-बड़ा काम करता था.

मेरे घर में तो लगभग हर हफ्ते, नहीं तो कम से कम हर दस दिन पर अली की गुहार लगती थी. मैं हमेशा कहती थी कि "अली अली" जपती हूँ. उसके बिना मानो घर अटक जाता था. जब भी आता दुकेले. अकेले कभी नहीं. गफ्फार के साथ. वह उसका रिश्ते में ममेरा या फुफेरा भाई था. शोले फिल्म के जय और बीरू की तरह उनकी जोड़ी थी. सुबह-सबेरे, रात-बिरात दोनों साथ प्रकट होते. गफ्फार अली का असिस्टेंट जैसा था. थोड़ा खामोश सा. अली काम करता होता तो गफ्फार दौड़कर ज़रूरी सामान ले आता था पास के बाज़ार से. कई बार दो-दो चक्कर लगा आता बाज़ार का. दोनों इकट्ठे विजय नगर की एक छोटी सी बिजली की दूकान में काम करते थे. कभी कदाल वहीं खड़े हुए पान-गुटखा चुभलाते हुए दिख भी जाते थे. नज़र पड़े तो ज़रूर टोकता था. वो न टोके तो मैं टोक कर हालचाल पूछ लेती थी या कोई काम फरमा देती थी.

अली बहुत चाव से काम करता था. बहुत ट्रेनिंग या पढ़ाई नहीं थी उसकी. मगर काम जानता था. अभ्यास से. तसल्ली से कभी उसकी पृष्ठभूमि के बारे में पूछा नहीं मैंने. काम करवाते समय घर-वर के बारे में ज़रूर गपशप होती थी, मगर वह दर्ज नहीं है मेरे दिमाग में. अब लग रहा है कि शायद यह उपयोगितावादी रिश्ता भर ही था तभी तो अली के बारे में ठीक ठीक मुझे कुछ नहीं मालूम. आज मन मसोस रहा है. राज पटेल और जेसन मूर (Jason W. Moore) की किताब  History of the World in Seven Cheap Things: A Guide to Capitalism, Nature, and the Future of the Planet में जो पूँजीवादी जाल और सस्ती चीज़ों में शामिल सस्ते श्रम की बात है, वह याद आ रहा है. अली अक्सर मेरे घर बुलाया जाता था क्योंकि वह बहुत महँगा नहीं था. हिसाब को लेकर कभी उससे चख-चख नहीं हुई.

अभी हाल में ही फोन करने पर भी जब लगातार अली हाथ नहीं आया तो मैंने Urban Clap से इलेक्ट्रिशियन बुलाया. पहली बार में अच्छा अनुभव हुआ, मगर अगली बार जो बंदा आया उसने मेरी किसी समस्या का समाधान नहीं किया और साढ़े चार सौ रुपए लेकर चलता बना. दुबारा मैंने अली को पकड़ने की कोशिश की. इस बार वह पकड़ में आ गया. अगले दो घंटे में मेरे दो पंखों और दो ट्यूबलाईट का इलाज उसने किया. एक पंखा बॉल बियरिंग बदलने के लिए ले गया. जाते-जाते रसोई में कप रखने का स्टैंड टांग गया जो एक तरफ से झूलने लगा था. एक नई पेंटिंग आई थी उसके लिए उपयुक्त जगह उसने सुझाई और फिर कहा कि घर के सारे लोगों को वो पसंद आए तब दुबारा आकर वह पेंटिंग लगा जाएगा. मैं एकदम निश्चिन्त हो गई थी अली के आने से. चुकता की गई रकम के लिहाज़ से भी Urban Clap से अली बेहतर था. लेकिन अली का सिर्फ सस्ता कारीगर होना उसको याद करने लायक नहीं बनाता. वह अच्छा इंसान था.

मैंने पहली बार दिवाली में बिजली के छोटे (सिरीज) बल्ब की झालर लगवाई थी. अली से. पहले दिया और मोमबत्ती ही दिवाली की खरीददारी में होते थे. फिर मसला आया आँगन के चारों ओर की चारदीवारी और छत की मुंडेर को सजाने का. अली ने कहा कि झालर लगवा लीजिए. मेरी पहुँच से बाहर था मामला. अपूर्व और मकरंद (भगिना) कर सकते थे, लेकिन उनके आलस्य और दिलचस्पी नहीं दिखाने के कारण अली का सुझाव मैंने मान लिया. तब तक बेटी छोटी थी तो उस पर भी दिवाली की सजावट का जिम्मा नहीं छोड़ सकती थी. आखिरकार आँगन के पेड़ से लेकर छत तक को अली और गफ्फार ने जगमगा दिया. अपनी दूकान से वह मेरी और बेटी की पसंद के झालर ले आया था. मैं खुश हो गई. उसमें दिया और मोमबत्ती के साथ बल्ब की झालर लगाने का समझौता घुल गया. शायद आँगन में बनी रँगोली ने मेरी उस कसक को संतुलित करने में भूमिका निभाई.
साल दर साल बीते. अली आता रहा. घर के सदस्य जैसा. कभी लगता बेटे जैसा है. उसके लिए कपडे, घर के सामान मैं निकालने लगी थी. हाँ, पुराने ही. इतनी उदारता मुझमें नहीं थी कि ख़ासकर नया उसके लिए कुछ लाती. वह भी माँग लेता. 2015 में जब मॉरिस नगर में ही हमने घर बदला तो आते समय पुरानी आलमारी, साइकिल वगैरह ले गया. नए घर में सारा बंदोबस्त उसी ने किया. वह मुझसे दुखी हुआ कि मैंने उससे नया एयरकंडीशनर फिट नहीं करवाया. जबकि वह हर गर्मी में पुराने एसी की सर्विसिंग कर देता था, लेकिन नए में मैंने उसकी जगह कंपनीवाले को बुला लिया. उसे लगा कि मैंने उसकी काबलियत पर संदेह किया. मुझे बाद में महसूस हुआ कि मैं नाहक ब्रांड और कंपनी के चक्कर में पड़ी. यह असंगठित क्षेत्र के श्रम और कौशल को नीचा दिखाना था. मगर मैंने अपना अफसोस ठीक से उसके सामने नहीं प्रकट किया.

उस साल भी दिवाली आई, मगर सड़क दुर्घटना में लाडो (अपूर्व की भतीजी) के चले जाने की वजह से रौशनी को लेकर उछाह नहीं था. अली को लगा कि मैं उससे काम नहीं करवाना चाहती हूँ. खैर उसने पंखे वगैरह की साफ़-सफाई की. बेटी की इच्छा के मुताबिक़ उसके कमरे में पीली लड़ी लगा दी. एलईडी बल्ब लगा दिया, पीली रौशनी वाले ट्यूब भी ले आया. अगले साल जब छत की कक्षा शुरू की तो उसी ने जुगाड़ लगाकर छत के कोने में बत्ती की व्यवस्था की. दिवाली में छत की झोंपड़ी को बल्ब की झालर से रंगीन कर दिया. हमें जो ज़रूरत होती उसे वह किसी न किसी तरह पूरा कर देता. मैं फोन करती कि ड्रिलिंग मशीन ले आओ तो पर्दे टाँगने से लेकर दीवार घड़ी में बैटरी डालने का काम कर देता. ऐसा था वह !

घर बदलने के दौरान की एक दुर्घटना ने अली के प्रति मेरे रवैये को थोड़ा बदल दिया था. हुआ यह था कि बेटी का आई-पॉड गायब हो गया था. असावधानी मेरी थी. मूवर्स और पैकर्स के दस मजदूर मेरे घर पर लगे थे. मैंने उनके ठेकेदार और सरदार से एक बार पूछा, लेकिन वे इतने अच्छे और भरोसे के लगे मुझे कि दुबारा पूछना बेइज्जती करना होता. मुझे हिम्मत नहीं हुई. उस दिन घर पर अली और गफ्फार कई घंटे काम कर रहे थे. मेरा संदेह नहीं हुआ, मगर बाद में कुछ और लोगों ने जिस तरह के संकेत दिए उससे मुझे अली पर शक होने लगा. मैं अपने को टोकती थी कि यह तो वही बात हुई कि गरीब पर इल्जाम लगाना आसान है. मैंने मुँहामुँही घर में और कुछेक लोगों को अपने मन के चोर के बारे में भी बताया.

उन्हीं दिनों मैंने महसूस किया था कि अली शराब पीने लगा है. कभी-कभी दिन में भी वह काम करने आता तो उसके मुँह से शराब की गंध आती. वह होता होश में और काम भी ठीक करता. बातचीत ज़रूर कम करने लगा था. काम करते ही रफूचक्कर हो जाता. बैठकर या फरमाईश पर चाय नहीं बनवाता था. मैंने उसे शराब की लत के बारे में कहा नहीं. मगर धीरे-धीरे उसके आने की अवधि कम होती गई. फोन करो तो टालने लगा. आज का कल और कल का परसों होने लगा. धीरे धीरे उसका फोन उठाना भी कम होता गया. थककर और चिढ़कर अपने नए घर में मैंने नया इलेक्ट्रिशियन खोजना शुरू किया. एक-दो आए-गए. कोई दो महीने आया कोई छः महीने. लेकिन हर बार अली का नाम ज़बान पर रहता, मन में भी. बीच-बीच में जब कोई नहीं मिलता तो अली आ भी जाता. गरज रहती मेरी. फिर एकाध बार गफ्फार अकेला आया. मालूम हुआ कि उनकी जोड़ी टूट गई. अब दोनों अलग अलग काम करने लगे थे. किसी ने किसी की शिकायत नहीं की. वे दोनों किस तकलीफ से गुज़रे होंगे, मुझे नहीं मालूम, परंतु मुझे भीतर से बहुत बुरा लगा. कोई भी रिश्ता बिगड़े, चोट दूर से देखनेवालों को भी होती है.

पिछले साल की बात है. लगभग छः महीने बाद मजबूरी में मैंने अली को फोन किया और वह फौरन नमूदार हो गया. लेकिन यह क्या ? मुझे उसे देखकर धक्का लगा. वह जवान लड़का 45 साल का और बूढ़ा-सा लग रहा था. अली मोटा कभी नहीं था, न ही दोहरे बदन का था. दरम्याने कद-काठी का था, फुर्तीला और एकदम तंदुरुस्त. मगर बीमार और लगभग आधा रह गया था वो. पूछने पर मालूम हुआ कि डायबटीज़ ने यह हालत की है. मुझे विश्वास न हुआ. मैंने सीधे पूछा कि शराब पीते हो और किडनी-लीवर का क्या हाल है. उसने सीधे मान लिया, लेकिन कहा कि अब नहीं पी रहा है. यह सरासर झूठ था. आज गफ्फार ने बताया कि उसका शराब पीना बदस्तूर जारी था. कम भले ही हुआ हो. मैंने एकबार उससे कहा कि दवा का पुर्जा दिखाओ, मेरे जेठ डॉक्टर हैं और मैं कुछ मदद कर सकती हूँ. उसने कहा कि अब सब रास्ते पर है. लीवर में भी सुधार है. कई बार कहने पर एकबार पुर्जा दिखाया, मगर मेरी समझ में नहीं आया. मैंने भी गंभीरता नहीं दिखाई. सोचा कि सब ठीक चल रहा है तो ठीक ही है. 

उस समय मैंने घर के काम के लिए किसी नए व्यक्ति को रखा था जिसके लिए एक कमरे की व्यवस्था भी थी. अली से चर्चा चली तो वह बोलने लगा कि मुझे कोई कमरा दिला दो और मेरी बीवी घर में काम कर लेगी. उस समय बीमारी, काम की कमी, बढ़ता किराया, आर्थिक स्थिति, बाज़ार की मंदी, बड़े परिवार की मुश्किल और बाहरी मुसलमान-विरोधी माहौल पर सब पर उसने बात की. काफी दिनों तक फोन करके काम और कमरे के बारे में मुझसे दरयाफ्त करता रहा. काश मैं कुछ कर पाती!

फिर वह बात छूट गई. अली ने मान लिया कि मैं उसकी मददगार नहीं बन सकती. कुछ महीने पहले एक दिन वह अपने 15 साल के बेटे को लेकर आया. जल्दी शादी हो गई थी उसकी जिस वजह से बड़ा बेटा नौवीं में पहुँच गया था. उसको काम सिखाने में लगा था. मेरी बेटी को अजीब लगा. बाल श्रम गैर कानूनी है, यह बात दिमाग में घूम रही थी. उसने कहा कि अली भैया के बेटे को कुछ अलग से बख्शीश ज़रूर देना. फिर दिवाली आई. अली को फोन करती रही मैं और वो टालता रहा. मैं नाराज़ भी हुई. खैर, दिवाली के एक दिन पहले अली अपने बेटे के साथ आया. उसको यहाँ पंखे साफ़ करने के काम में लगाकर खुद वह दूसरी जगह चला गया. काम पूरा करके बच्चा थककर कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गया. हमारे लाख कहने पर भी उसने कुछ नहीं खाया. कई घंटे बाद अली आया. कुछ बारीक काम मैं अली से करवाना चाहती थी तो वह काम उसका इंतज़ार कर रहा था. उसे कोफ्त हुई. मगर उसने फ़टाफ़ट काम पूरा किया. मेहनताना लेकर बेटे के साथ मुस्कुराता हुआ चला गया. उसे बहुत जल्दी थी. बेटे को काम सिखाने की, कमाने की, दूसरों के घरों को रौशन करने का काम पूरा करने की, घर लौटने की और  ...!

शाम को दरवाजे की घंटी बजी. वही जिसे अली ने लगाया था. बल्कि इस घर में उसने कम से कम 4-5 घंटी लगाई होगी. तकनीकी गड़बड़ी के कारण बार बार घंटी जल जाती थी. अभी वाली घंटी लगाते हुए उसने कहा था कि यह पक्का चलेगी. तकरीबन साल भर से वह चल रही है, लेकिन अली चला गया. गफ्फार ने आकर बताया कि आगे से काम के लिए मुझे फोन करना. मैंने छूटते ही पूछा कि क्यों अली को क्या हुआ ! मुझे अंदेसा हुआ कि दोनों का झगड़ा बढ़ गया. लेकिन जो जवाब मिला उसने मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खिसका दी. उसने बताया कि शुगर का दौरा पड़ा. यह अजीब था. मैं पूछती गई. लीवर, किडनी सब खराब हो गया था. दिमाग का कैंसर भी डॉक्टर ने बता दिया. शायद पाँच साल पहले अली को दौरा सा पड़ा था. गफ्फार का अंदाजा है कि ब्रेन कैंसर का झटका था वह. उसने कहा कि अली जानता था कि वह जल्दी जाएगा.

13 नवम्बर को लगभग 9 दिन सरकारी अस्पतालों का चक्कर काटते हुए अली चला गया. प्राइवेट में बीस लाख का बजट बताया था, मगर उसमें भी गारंटी नहीं थी. एक शादी में अली गया था. खूब खा-पीकर वापस घर लौटा हमेशा के लिए जाने को. अस्पताल में बेसुध पड़े अली की तस्वीर दिखाई गफ्फार ने और मैंने अभी उसके नंबर पर जाकर व्हाट्सऐप की DP देखी जिसमें एक दिल के आकार के भीतर उसका शांत-गंभीर चेहरा झाँक रहा है और चमकदार बल्ब से लवकी जगह एक दिल है और यूलिखा हुआ है. ज़रूर बच्चों ने यह चित्र लगाया होगा. मैं अली के हरदम मुस्कुराते हुए चेहरे से उसका मिलान कर रही हूँ. सोच रही हूँ कि एक जवान जहान लड़का क्यों ऐसे चला गया ! अली दूसरों की ज़िंदगी को रौशन करता था, मगर उसके घर-परिवार का, गफ्फार का अँधेरा कौन दूर करेगा ? वह भी अभी के दौर में ? अली जैसे नाम जब लोगों को डराने लगे हैं तब उन्हें कौन बचाएगा ?