Translate

रविवार, 5 अगस्त 2012

धड़कन-धड़कन (Dhadakan-dhadakan by Ajneya)



धड़कन-धड़कन-धड़कन -
दायीं, बायीं, कौन आँख की फड़कन -
मीठी कड़वी तीखी सीठी
कसक-किरकिरी किन यादों की रड़कन ? 
उंह ? कुछ नहीं, नशे के झोंके-से में 
स्मृति के शीशे की तड़कन ?
                         -अगस्त 1964



कवि - अज्ञेय 
संकलन - सदानीरा, संपूर्ण कविताएँ-2
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986

शनिवार, 4 अगस्त 2012

मेरी प्यारी बेटी सुमिता (Meri pyari beti Sumita by Sumitranandan Pant)


           मेरी प्यारी बेटी सुमिता -
                   पाँच साल की
           अभी नहीं वह -  
                   कमरे में आ चुपके, मुझको
           देख एकटक, बोली,
                   "दद्दू, मुझे छोड़कर 
           भला, चले जाओगे क्या तुम ?"
                    मैंने पूछा,
            "क्यों कहती हो ?
                    कहाँ चला जाऊँगा मैं ?" - वह
चुप रह क्षण-भर, बोली,
            "तुम जो मर जाओगे !!"
विस्मय हुआ मुझे !
             वह नहीं समझती अब तक 
क्या है मृत्यु ?
             सूँघ उसका सिर, बोला हँसकर,
"किसने तुझसे कहा ?
              नहीं तो, तुझे छोड़कर
दद्दू भला कहाँ जाएगा ?-
              बतलाओ भी 
तुझसे किसने कहा ?"
              ध्यान से देख मुझे वह
              बोली, "दद्दू, हमें किसी ने
                          नहीं बताया !"
              भारी स्वर में कहा,
                          "ज्ञात है मुझे स्वयं ही !
               मुझे छोड़कर मत जाना तुम,
                           कभी न जाना !"

आँखें भर आईं !...
              मैं भावावेग रोककर
बोला, "सोना, बड़ा बनाकर
              पहले तुझको
पीछे जाऊँगा मैं !"
              "कभी नहीं !" उत्तेजित
स्वर में बोली,
              "हम होंगे ही नहीं बड़े, जब
खाएँगे ही नहीं -
              बड़े तब कैसे होंगे ?"

              सुनकर उसका तर्क,
                     गोद में लेकर उसको
               प्यार किया मैंने,
                     उसका सिर सूँघ, चूमकर !
               उसको समझाया,
                      लिपटाकर सहज गले से,
               "बेटा, सभी नहीं मरते -
                       मैं भी उनमें हूँ
                जो न कभी मरते !
                       मैं नहीं मरूँगा, तुझसे
                सच कहता हूँ !"

समझ गई वह भाव ह्रदय का
                उसे छोड़कर
मैं न कभी मरना चाहूँगा ! -
                मरने पर भी
मैं उसका ही बना रहूँगा !
               दीर्घ साँस निकली
 उसके उर से अनजाने,
               सुख संतोष झलक आया
द्रुत आतुर मुख पर -
             लिपट गई वह मेरे उर से
मुग्ध भाव-सी !


कवि - सुमित्रानंदन पन्त  
संकलन - स्वच्छंद  
प्रमुख संपादक - अशोक वाजपेयी, संपादक - अपूर्वानंद, प्रभात रंजन
प्रकाशक -  महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000



शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

एक कवि से बातचीत (Conversation with a poet by Miroslav Holub)



क्या तुम कवि हो?
              हाँ, मैं हूँ.
तुम्हें कैसे मालूम?
             मैंने कविताएँ लिखी हैं.
अगर  कविताएँ लिखी हैं, तो इसका मतलब है कि तुम कवि थे.
 लेकिन अब?
             
मैं फिर एक रोज़ कविता लिखूँगा.
तो उस हालत में शायद तुम किसी दिन फिर कवि हो सको. लेकिन तुम कैसे जानोगे कि वह कविता है?
             वह आख़िरी कविता जैसी ही कविता होगी.
तब तो तय है कि वह कविता नहीं होगी. कविता सिर्फ एक बार होती है और
कभी वैसी ही दुबारा नहीं हो सकती.
             मुझे लगता है कि वह उतनी ही अच्छी होगी.
तुम इतना  निश्चित  कैसे हो सकते हो?  कविता का गुण भी सिर्फ एक बार के लिए होता है
और वह तुम पर नहीं हालात पर निर्भर होता है.
              मुझे लगता है हालात भी वैसे ही होंगे.
अगर तुम्हें यह लगता है तब तो तुम कवि नहीं होगे और न कभी कवि थे.
तुम्हें कैसे लगता है कि तुम कवि हो?
              शायद - मैं ठीक-ठीक नहीं जानता. और तुम कौन हो?



चेक कवि - मिरोस्लाव होलुब (1923 -1998) 
   संकलन - पोएम्स : बिफोर एंड आफ्टर
चेक से अंग्रेज़ी अनुवाद - एवाल्द ओसर्स  
प्रकाशक - ब्लडैक्स बुक्स, न्यूकैसल, इंगलैंड, 1990
   अंग्रेज़ी से अनुवाद: अपूर्वानंद

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

कींगरी और तूमा (Keengaree aur Toomaa by Veriar Alwin)


     यह मज़ेदार बात है कि गोंड लोगों के पास 'रामायण' का दूसरा ही रूप है जिसमें लक्ष्मण हीरो है और पूरी कहानी संगीत की ताकत पर टिकी है. लक्ष्मण के पास एक अदभुत 'कींगरी' है, एक 'निम्मत कींगरी', एक बाँसुरी जिस पर प्यार के गीत बजाए जाते थे. एक बार उसने 'कींगरी' बजाना बन्द करके उसे खूँटी पर टाँग दिया. 'कींगरी' आँसू बहाने लगी. लक्ष्मण की बाँसुरी की गूँज स्वर्ग तक पहुँची जहाँ परियों की देवी इन्द्रकमानी ने उसे सुना. वह अपने स्वर्गिक दरबार को छोड़ धरती पर आकर बाँसुरी बजानेवाले को तलाश करने लगी. लेकिन लक्ष्मण पवित्रता और उसकी 'कींगरी' सत्य की प्रतीक थी. इन्द्रकमानी का कोई हाव-भाव उसे ललचा न सका. किन्तु राम को लक्ष्मण और सीता के सम्बन्धों पर सन्देह हो गया. उसने अनाज रखने के लोहे के ड्रम में लक्षमण को बन्द करके आग में डलवा दिया. लेकिन लक्ष्मण मज़े से बाँसुरी बजाता रहा और जब नौ दिन बीते तो वह सुरक्षित उससे बाहर निकल आया.
      एक रोज़ भीमा लोगों का एक समूह आश्रम (करंजिया) में आया. मर्द 'तूमा' बजा रहे थे और उनके आगे औरतें नाच रही थीं. प्रधानों की तरह भीमा भी गोंड कबीले की एक शाखा हैं और संगीत तथा नृत्य को समर्पित हैं. बहुत पहले, सीता का रामचन्द्र से झगड़ा हो गया. वह समझ नहीं पा रहे थे कि पत्नी को कैसे मनाया जाए. लेकिन विशालकाय भीमसेन ने अपने बदन से कुछ मैल निकालकर उसका एक छोटा-सा आदमी बनाया. फिर उसने एक कद्दू, अहीर का बाँस, कुछ मोम, और काले हिरन के स्नायु से बनी एक डोरी ली और सबसे पहला 'तूमा' बनाया. भीमसेन ने इसको छोटे आदमी को दिया जिसने इतना बढ़िया गाना और नाच किया कि सीता अपना गुस्सा भूल गई. इसके बाद 'तूमा' का नाम 'मोहन-बाजा' पड़ गया यानी खुशी देनेवाला बाजा. इसको बजानेवाला छोटा आदमी पहला भीम (भीमा) कहलाया. तब से भीमा के वंशज गाँव-दर-गाँव नाचते-गाते घूमते रहते हैं. मैंने उनसे पूछा, 'क्या आपके अपने खेत हैं ?' 'यह हमारा खेत और बैलों की जोड़ी है' ; 'तूमा' की ओर इशारा करते हुए उन्होंने जवाब दिया. 


लेखक - वेरियर एलविन 
किताब - एक गोंड गाँव में जीवन
मूल - 'लीव्स फ्रॉम द जंगल : लाइफ इन अ गोंड विलेज'
आदि सन्दर्भ पुस्तकमाला, संपादक - प्रदीप पंडित 
अनुवाद - नरेन्द्र वशिष्ठ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007

वेरियर एलविन ने गोंड गाँव करंजिया में कई साल बिताए जिसका ब्योरा 1932 से 1936 के दौरान लिखे उनके रोजनामचे में मिलता है.

बुधवार, 1 अगस्त 2012

ताला (Tala by Sanjay Shandilya)



कितना परेशान करता है यह ताला 

जब बन्द करो
बन्द नहीं होगा

खोलो हड़बड़ी में
खुलेगा नहीं
पसीना छुड़ा देगा सबके सामने

एकदम बच्चा हो गया है यह ताला 

कभी अकारण अनछुए ही
खुल जाएगा ऐसे
साफ़ हुआ हो जैसे
कोई जाला...मन का काला !


कवि - संजय शांडिल्य
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि 
संपादक - नन्दकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

सन्नाटा (Sannaataa by Makhdoom Mohiuddin)


कोई धड़कन
न कोई चाप
न संचल (हलचल?)
न कोई मौज
न हलचल
न किसी साँस की गर्मी
न बदन
ऐसे सन्नाटे में इक आध तो पत्ता खड़के
कोई पिघला हुआ मोती
कोई आँसू
कोई दिल
कुछ भी नहीं
कितनी सुनसान है ये राहगुज़र
कोई रुखसार तो चमके, कोई बिजली तो गिरे l


शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004

ख़्वाज़ा अहमद अब्बास ने ठीक ही कहा था कि "मख़्दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूँदें भी...वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी."

सोमवार, 30 जुलाई 2012

सब कुछ की जड़ में (Sab kuchh ki jad mein by Deviprasad Chattopadhyay)


        बहुत पहले की बात है. लोगों की एक जमात थी. उनका पेशा मवेशी पालना था. रोहिताश्व ऐसी ही एक जमात का आदमी था. उसके पिता का नाम हरिश्चंद्र था. रोहिताश्व का मतलब लाल घोड़ा होता है. हरि के माने भी घोड़ा है. शायद साईं जमात ही अपना परिचय घोड़ा कहकर देती थी.
       ब्राह्मण बने इन्द्र ने रोहित को बार-बार नसीहत दी थी-काम में ही मंगल बसता है, सौन्दर्य रहता है. जो काम करता है, वही श्रेष्ठ है. काम से ही सुख मिलता है. इसलिए काम करो. जो काम करता है उसका शरीर और मन, दोनों बढ़ते हैं. मेहनत सारी कमियाँ दूर किए रहती है. इसलिए काम करो. काम करने से मधु, मीठे फल मिलते हैं. देखो, सूरज की रोशनी सदा चलती है, कभी नहीं सोती. इसलिए काम करो, काम करो.
       लेकिन इन्द्र ने पहले ही कहा तह, काम की यह महत्ता उनकी सुनी हुई है. इससे यह पता चलता है कि इन्द्र स्वयं परिश्रम नहीं करते थे. बहुत संभव है, वे उस ज़माने के एक दास-प्रभु थे. खुद मेहनत करने के बजाय दासों से मेहनत कराके वे अपार संपत्ति के मालिक बन बैठे थे. रोहिताश्व को पाने के लिए वे बहुत दिनों से सत्तू बाँधकर पीछे पड़े थे, जैसा कि चाय बागान की कुलीगिरी और लड़ाई के सिपाही की भर्ती के लिए दलाल तरह-तरह से फुसलाते हैं. यह भी शायद वैसा ही था.
       इन्द्र ने कहा था, चरैवेति, चरैवेति - काम करो, काम करो. लेकिन जो काम करेगा, वह अपनी मेहनत का पूरा फल पाएगा या नहीं, इस पर उन्होंने ख़ास कुछ नहीं कहा. दरअसल अगर काम का फल काम करने वालों को मिलता तो इन्द्र का वैसा महल बनकर नहीं खड़ा होता.
       बात चाहे अच्छी ही हो, पर वह किसके लाभ के लिए कही गई है, यही देख लेना ज़रूरी है. आज जब कुछ लोग स्वयं आराम करते हुए देश के बाकी लोगों की गर्दन तोड़ने के लिए उपदेश दिया करते हैं, तो वह सत्य नहीं जँचता, जाली हो जाता है. उसमें छन्द नहीं फन्द है. 


सम्पादक - देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय 


पुस्तक - जानने की बातें, भाग 5 , साहित्य और संस्कृति 
मूल - बांग्ला में प्रकाशित 'जानवर कथा' पुस्तकमाला का पंचम भाग 
अनुवादक - हंसकुमार तिवारी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

प्रख्यात दार्शनिक देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने बच्चों में समय, समाज और प्रकृति को देखने-परखने की वैज्ञानिकी समझ तथा ज्ञान के विकास के लिए विभिन्न विषयों के आधिकारिक विद्वानों के सहयोग से ग्यारह खंडों में इस महत्त्वपूर्ण पुस्तकमाला का संकलन-संयोजन-संपादन किया है. यह किसी बाल विश्वकोश से कम नहीं. खुशी-खुशी लक्ष्य की ओर बढ़ना ही छन्द है - इस तरह से छन्द को परिभाषित करते हुए वे चलते-चलाते रोहित की जो कहानी सुनाते हैं, वह पेश है.