यह मज़ेदार बात है कि गोंड लोगों के पास 'रामायण' का दूसरा ही रूप है जिसमें लक्ष्मण हीरो है और पूरी कहानी संगीत की ताकत पर टिकी है. लक्ष्मण के पास एक अदभुत 'कींगरी' है, एक 'निम्मत कींगरी', एक बाँसुरी जिस पर प्यार के गीत बजाए जाते थे. एक बार उसने 'कींगरी' बजाना बन्द करके उसे खूँटी पर टाँग दिया. 'कींगरी' आँसू बहाने लगी. लक्ष्मण की बाँसुरी की गूँज स्वर्ग तक पहुँची जहाँ परियों की देवी इन्द्रकमानी ने उसे सुना. वह अपने स्वर्गिक दरबार को छोड़ धरती पर आकर बाँसुरी बजानेवाले को तलाश करने लगी. लेकिन लक्ष्मण पवित्रता और उसकी 'कींगरी' सत्य की प्रतीक थी. इन्द्रकमानी का कोई हाव-भाव उसे ललचा न सका. किन्तु राम को लक्ष्मण और सीता के सम्बन्धों पर सन्देह हो गया. उसने अनाज रखने के लोहे के ड्रम में लक्षमण को बन्द करके आग में डलवा दिया. लेकिन लक्ष्मण मज़े से बाँसुरी बजाता रहा और जब नौ दिन बीते तो वह सुरक्षित उससे बाहर निकल आया.
एक रोज़ भीमा लोगों का एक समूह आश्रम (करंजिया) में आया. मर्द 'तूमा' बजा रहे थे और उनके आगे औरतें नाच रही थीं. प्रधानों की तरह भीमा भी गोंड कबीले की एक शाखा हैं और संगीत तथा नृत्य को समर्पित हैं. बहुत पहले, सीता का रामचन्द्र से झगड़ा हो गया. वह समझ नहीं पा रहे थे कि पत्नी को कैसे मनाया जाए. लेकिन विशालकाय भीमसेन ने अपने बदन से कुछ मैल निकालकर उसका एक छोटा-सा आदमी बनाया. फिर उसने एक कद्दू, अहीर का बाँस, कुछ मोम, और काले हिरन के स्नायु से बनी एक डोरी ली और सबसे पहला 'तूमा' बनाया. भीमसेन ने इसको छोटे आदमी को दिया जिसने इतना बढ़िया गाना और नाच किया कि सीता अपना गुस्सा भूल गई. इसके बाद 'तूमा' का नाम 'मोहन-बाजा' पड़ गया यानी खुशी देनेवाला बाजा. इसको बजानेवाला छोटा आदमी पहला भीम (भीमा) कहलाया. तब से भीमा के वंशज गाँव-दर-गाँव नाचते-गाते घूमते रहते हैं. मैंने उनसे पूछा, 'क्या आपके अपने खेत हैं ?' 'यह हमारा खेत और बैलों की जोड़ी है' ; 'तूमा' की ओर इशारा करते हुए उन्होंने जवाब दिया.
लेखक - वेरियर एलविन
किताब - एक गोंड गाँव में जीवन
मूल - 'लीव्स फ्रॉम द जंगल : लाइफ इन अ गोंड विलेज'
आदि सन्दर्भ पुस्तकमाला, संपादक - प्रदीप पंडित
अनुवाद - नरेन्द्र वशिष्ठ
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007
वेरियर एलविन ने गोंड गाँव करंजिया में कई साल बिताए जिसका ब्योरा 1932 से 1936 के दौरान लिखे उनके रोजनामचे में मिलता है.
वेरियर एलविन ने गोंड गाँव करंजिया में कई साल बिताए जिसका ब्योरा 1932 से 1936 के दौरान लिखे उनके रोजनामचे में मिलता है.
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