तलहटी की रेत में,
बाजरे के खेत में,
भोरे-भोरे छोहरियाँ भैरवी जगा रहीं.
तुलता अनुराग-बाण,
खुलता हँसता बिहान,
खिल रहे कपोल लाल-लाल आसमान के ;
और लाख-लाख बिन्दियों से ठौर-ठौर मौर
सज रहे जहान के ;
जिनके राग-रंग में,
भोरे-भोरे छोहरियाँ रँग रहीं, रँगा रहीं.
हँस रहीं पहाड़ियाँ
स्वर्ग की अटारियाँ,
हँस रहे नयन छलक-छलक नदी की धार में
बज रहे सितार मंद्र-मंद्र तीर-तार में ;
जिनकी तरल तान को
भोरे-भोरे छोहरियाँ गान में लगा रहीं.
तितलियों के नेह से
भोर की हवा में खेल, खिल रही हैं पत्तियाँ ;
ओस के सनेह से
जग रही हैं आरती-सी दूबियों की बत्तियाँ ;
जिनको अपने चाव से,
गीत के प्रभाव से,
भोरे-भोरे छोहरियाँ भाव में डुबा रहीं.
पंछियों की रागिनी
चहचहा रही फुदक-फुदक नदी कछार पर ;
मछलियाँ सुहागिनी
झाँकतीं गगन लहर-लहर के पट उघारकर ;
जिनको अपने बोल से,
कंठ के किलोल से,
भोरे-भोरे छोहरियाँ प्रेम में पगा रहीं.
कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र', 1943
संकलन - 'हर अक्षर है टुकड़ा दिल का' में 'शिंजिनी' से
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2008
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