वो दर खुला मेरे गमकदे का
वो आ गए मेरे मिलनेवाले
वो आ गयी शाम, अपनी राहों में
फ़र्शे-अफ़सुर्दगी (उदासी का फ़र्श) बिछाने
वो आ गयी रात चाँद-तारों को
अपनी आज़ुर्दगी (उदासी) सुनाने
वो सुब्ह आयी दमकते नश्तर से
याद के ज़ख्म को मनाने
वो दोपहर आयी, आस्तीं में
छुपाये शोलों के ताज़याने
ये आये सब मेरे मिलनेवाले
कि जिन से दिन-रात वास्ता है
ये कौन कब आया, कब गया है
निगाहो-दिल को खबर कहाँ है
ख़याल सू-ए-वतन रवाँ है
समन्दरों की अयाल थामे
हज़ार वहमो-गुमाँ सँभाले
कई तरह के सवाल थामे
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बेरूत, 1980
शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
संग्रह -'सारे सुखन हमारे'
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण, 1987
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