ज़िन्दा हैं एक उम्र से दहशत के साये में
दम घुट रहा है अह्ले-इबादत के साये में
हमको कहाँ तसव्वरे-जानाँ हुआ नसीब
बैठे हैं हम कहाँ कभी फुरसत के साये में
छोड़ा न हमने नक़्श कोई राहे-इश्क़ में
गुज़री तमाम उम्र नदामत के साये में
बिछड़े हुए दयारे-दिलो-जाँ के दोस्तो
पूछो न दुख सहे हैं जो ग़ुरबत के साये में
ऐ रहरवाने-राहे-सेहर, हमको दाद हो
लेते हैं साँस ज़ुल्म की ज़ुल्मत के साये में
हम आएँगे तो आएगा वो अह्दे-ख़ुशगवार
गुज़रेगी जब हयात मुहब्ब्त के साये में
अह्ले-इबादत = धार्मिक लोग
तसव्वरे-जानाँ = प्रियजन की कल्पना
नक़्श = चिह्न
नदामत = शर्मिन्दगी
दयारे-दिलो-जाँ = हृदय और प्राण की बस्ती
ग़ुरबत = परदेस
रहरवाने-राहे-सेहर = सुब्ह की राह के राहगीर
ज़ुल्मत = अन्धकार
अह्दे-ख़ुशगवार = सुन्दर युग
हयात = जीवन
शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010
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