कैसी तबाही आई !
जी बैठ गया, मन हारा
अब सूना है जग सारा
हर पग पर दुख के काँटे
हर राह में घोर अँधियारा
हर सिम्त उदासी छाई
कैसी तबाही आई !
इक जोत जगाकर पल में
वो चाँद छिपा बादल में
अब कोई नहीं है अपना
इस जीवन के जंगल में
हर साँस है एक दुहाई
कैसी तबाही आई !
सपनों के महल सब ढाए
आशा के दीप बुझाए
बिपता की आँधी उट्ठी
दुख-दर्द के बादल छाए
आफ़त की घटा मँडलाई
कैसी तबाही आई !
दुनिया को न मुँह दिखलाऊँ
जाऊँ तो किधर जाऊँ
ये दुख मैं किसको बतलाऊँ
ये दर्द किसे समझाऊँ
अब मैं हूँ, मिरी तनहाई
कैसी तबाही आई !
सिम्त = तरफ़
शायर - 'मजाज़' लखनवी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'मजाज़' लखनवी
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001
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