यह 'घट' इतना कहाँ हाय ! जो इसमें रहती गंगा
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू, बहती गंगा I
देखे हैं कितने 'युग' तूने क्या कहती है गंगा
तुझसे बुझती रहे चिता वह, जो दहती है गंगा
आज हमारे पाप-ताप ही तू सहती है गंगा
'फूल' भेंट के साथ बाँह यह तू गहती है गंगा
बहती रह इस महा मही पर मेरी महती गंगा
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू, बहती गंगा I
कवि - मैथिलीशरण गुप्त
संकलन - स्वस्ति और संकेत
प्रकाशक - साकेत प्रकाशन, चिरगाँव, झाँसी, 1983
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