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बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

भुला दें (Bhula dein by 'Akhtar' Sheerani)

वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें 
मुहब्ब्त करें, ख़ुश रहें, मुस्कुरा दें 


ग़ुरूर और हमारा ग़ुरूरे-मुहब्ब्त 
महो-मेह्र को उनको दर पर झुका दें 


जवानी हो गर जाविदानी तो या रब 
तिरी सादा दुनिया को जन्नत बना दें 


शबे-वस्ल की बेख़ुदी छा रही है 
कहो तो सितारों की शमएँ बुझा दें 


इबादत है इक बेख़ुदी से इबारत 
हरम को मए-मुश्कबू से बसा दें 


बनाता है मुँह तल्ख़ि-ए-मै से ज़ाहिद 
तुझे बाग़े-रिज्वाँ से कौसर मँगा दें !

तुम अफ़सान-ए-क़ैस क्या पूछते हो !
इधर आओ, हम तुमको लैला बना दें

ये बेदर्दियाँ कब तक ऐ दर्दे-ग़ुरबत !
बुतों को फिर अर्ज़े-हरम में बसा दें 

उन्हें अपनी सूरत पे यूँ नाज़ कब था !
मिरे इश्क़े-रुसवा को 'अख़्तर' दुआ दें

महो-मेह्र = चाँद-सूरज 
जाविदानी = अनश्वर 
शबे-वस्ल = मिलन की रात
हरम = मस्जिद या काबा 
मए-मुश्कबू = सुगन्धित मदिरा 
तल्ख़ि-ए-मै = शराब की कड़वाहट 
बाग़े-रिज्वाँ = स्वर्ग का बाग़ 
कौसर = स्वर्ग की शराब की एक नदी
अफ़सान-ए-क़ैस = मजनूँ की कहानी
दर्दे-ग़ुरबत = परदेस का दर्द 
अर्ज़े-हरम= काबे की धरती पर
इश्क़े-रुसवा = बदनाम प्रेम

शायर - 'अख़्तर' शीरानी संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

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