नींद उड़ गई है !
उगते अस्त हुआ रवि जिस दिन
आँधी उठी, उड़े सुख के तृण ;
सिमट गए सब दृश्य ; किस कदर
दृशि सिकुड़ गई है !
बहार कोई क्या पहचाने !
घायल की घायल ही जाने ;
मृग से उसकी नाभि, सर्प से
मणि बिछुड़ गई है !
भीतर जैसी है यह माटी,
कैसे निकले, ऐसी काँटी ?
वज्रहृदय में गड़कर कोई
याद मुड़ गई है !
- 1977
कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र'
किताब - रुद्र समग्र
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें