प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि !
पल-भर चमक बिखर जाते जो
मना कनक-गोधूलि-लगन सखि !
प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि !
प्रीति नील, गंभीर गगन सखि !
चूम रहा जो विनत धरणि को,
निज सुख में नित मूक-मगन सखि !
प्रीति नील, गंभीर गगन सखि !
प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि !
जो होता नित क्षीण एक दिन,
विभा-सिक्त करके अग-जग सखि !
प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि !
दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि !
शीत, स्निग्ध, नव रश्मि छिड़कती
बढ़ती ही जाती पग-पग सखि !
दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि !
मन की बात न श्रुति से कह सखि !
बोले प्रेम विकल होता है,
अनबोले सारा दुख सह सखि !
मन की बात न श्रुति से कह सखि !
कितना प्यार ? जान मत यह सखि !
सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे
बसती कहीं प्रीति अहरह सखि !
कितना प्यार ? जान मत यह सखि !
तृणवत् धधक-धधक मत जल सखि !
ओदी आँच धुनी विरहिनि की,
नहीं लपट की चहल-पहल सखि !
तृणवत् धधक-धधक मत जल सखि !
अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि !
प्रीति-स्वाद कुछ ज्ञात उसे जो
सुलग रहा तिल-तिल, पल-पल सखि !
अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि !
कवि - दिनकर
संकलन - कविश्री
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1989
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (26.09.2014) को "नवरात महिमा" (चर्चा अंक-1748)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद। नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंबहुत मधुर रचना ! मजा आ गया !
जवाब देंहटाएंनवरात्रि की हार्दीक शुभकामनाएं !
शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ३