कल की सुबह जाड़ा आने की तैयारी करने के नाम थी. उस क्रम में बेटी
की रज़ाई खोज रही थी. पहले तो अपने पलंग के चारों बॉक्स को खँगाला. फिर दीवान की
बारी आई. रज़ाई के चक्कर में सारे बक्से और सूटकेस (स्काई बैग से लेकर VIP के कचकड़ेवाले ब्रीफकेस) भी पलट
डाले. अंत में याद आया कि रज़ाई ड्राई क्लीनर के पास ही है. इस पलटा-पलटी में मोढ़े
के कुछ नए खोल मिल गए जिन्हें मैं पूरी तरह भूल चुकी थी. मिलते ही मैंने अपनी
सहयोगी सरोज के साथ मिलकर उन्हें मोढ़े पर चढ़ा दिया. सरोज को मैंने उन मोढ़ों को
अपनी दोस्त के साथ जयपुर से ढोकर लाने और शताब्दी में टी.टी.से बहस करने का वाकया
भी सुना दिया. काले और सफ़ेद खोल में मोढ़े कायदे के लग रहे थे. मुदित भाव से मैं
दूसरी तरफ मुड़ी. एक पुराने बैग में पुरानी फोटो, पुराने एलबम और एक-दो निगेटिव हाथ लग गए. जो पहली तस्वीर
उठाई वह बेटी के छुटपन की थी. फिर घर-परिवार और सभा-सेमिनार, धरना-जुलूस की तस्वीरों का ढेर
था. रामगढ़ में निर्मल वर्मा की, नैनीताल
में मनोहर श्याम जोशी की, पटना
के कलाकार संघर्ष समिति के जुलूस में नेमिचंद्र जैन, कारंथ वगैरह की, वर्धा
में शिवकुमार मिश्र की, पटना
में चंद्रशेखर स्मृति व्याख्यान में विशालाक्षी मेनन की, पटना में आयोजित इकबाल संगोष्ठी
में अली सरदार जाफरी, मुहम्मद
हसन, जगन्नाथ आज़ाद वगैरह की, पटना कॉलेज सेमिनार हॉल में
त्रिलोचन जी और नानाजी की, सीवान
में चंद्रशेखर की, दिल्ली
में शाहपुर जाटवाले घर में मेरी बहन कनु की, पटना
के गुलबी घाटवाले घर में मनोरमा फुआ की, दिल्ली
में रामशरण शर्मा की ... इन सबके साथ जीवंत तस्वीरें ! मगर झटका लगा यह सोच कर कि
इतने सारे लोग अब हमारे साथ नहीं हैं. मतलब हम जिनके साथ पले-बढ़े, जिनकी सोहबत हमें मिली उनमें से 25 % से अधिक लोग अब इस दुनिया में
नहीं हैं ! ऐसे ख़यालों को ज़बरदस्ती अपने दिमाग से हटाकर मैं तैयार होकर शाम के
मेहमानों के स्वागत के लिए अपनी ननद के साथ खरीदारी करने चली गई. सामान की सूची
लंबी न थी - केवल मछली, मटन, अदरक, कॉफ़ी और बेसन. इसे निपटाकर मुझे
भाषा, अस्मिता और शिक्षा पर हो रही
चर्चा में जाना था. वहाँ अनीता रामपाल से मुलाकात हुई और बरबस विनोद रैना याद आए.
अभी सत्र शुरू ही होनेवाला था कि मुकुल से मालूम हुआ कि
लता पांडे नहीं रहीं. मुझे विश्वास नहीं हुआ. वे हड़बड़ी में थीं क्योंकि उन्हें
सत्र के लिए मंच पर जाना था. उन्होंने इतना बताया कि 10 दिन बुखार और खाँसी के बाद
शुक्रवार को लताजी अस्पताल में भर्ती हुई थीं और निमोनिया निकला था. रविवार की देर
रात यह सब हुआ ! मैंने बाहर निकलकर पहले लताजी का फोन लगाया. वह बजता रहा. फिर NCERT की उनकी सहकर्मी इंदुजी को लगाया.
इंदुजी ने बताया कि खबर सही है और वे सब निगम बोध घाट ही जा रहे हैं. पीछे से
लताजी को ला रहे हैं. क्या संयोग था कि भाषा और शिक्षा पर आजीवन काम करनेवाली
लताजी के बारे में मैं उन्हीं के विषय पर आयोजित सेमिनार में ऐसे सुन रही थी ! अब
वे आ नहीं रही थीं, उनको
लाया जा रहा था. सब भाषा का ही खेल है न ? और
आपकी पहचान का न ? आप
जीवित हैं या मृत, सबसे
पहला असर भाषा पर पड़ गया न ! इंदुजी से पता चला कि उनलोगों को घाट पहुँचने में आधा
घंटा लगेगा. मैं अनमनी सी हॉल में आकर बैठ गई. फोन की आवाज़ बंद थी, इसलिए तुरत लताजी के नंबर से किसी
ने पलट कर फोन किया था तो मैं सुन न सकी थी. मैं दस मिनट बैठ गई. गलत किया क्योंकि
दस मिनट बाद निकलकर ऑटो खोजने में दस-पंद्रह मिनट और बर्बाद हो गए. कोई ऑटो कभी एक
बार में जाने को तैयार ही नहीं होता है. और वह भी निगम बोध घाट जहाँ छोड़ने के बाद
उनको दूसरी सवारी न मिले ! घाट का रिंग रोड पर होना भर ऑटोवालों के लिए सही नहीं
है.
चलते-चलते लताजी के नंबर पर फिर फोन लगाया. किसी पुरुष ने बताया कि वे लोग घाट पहुँच गए हैं. इतना मैंने पूछ लिया कि क्या बिजली से दाह संस्कार हो रहा है. जवाब मिला कि नहीं, लकड़ी से. मेरी चाल तेज़ हुई और मैं विश्वविद्यालय मेट्रो की दिशा में बढ़ी. आगे चलकर बीसियों ऑटोवालों से पूछने के बाद एक ने कृपा की. मैं पहुँच गई. अंदर जाकर खोजना शुरू किया. लताजी को नहीं, NCERT के परिचित चेहरों को. कहीं पंजाबियों का समूह था, कहीं साधारण रहन-सहनवाले लोगों का समूह था. अस्मिता के सहारे समूहों को पहचानते हुए मैं आगे बढ़ रही थी. कई समूह के पास जाकर दाह संस्कार किसका किया जा रहा है यह भी पूछ लिया. जब उलझ गई तब इंदुजी से दुबारा फोन से पूछा कि आपलोग किधर हैं. अब न उत्तराखंड मुझे पता था और न यमुना किनारे जाने का रास्ता मिल रहा था. खैर, फिर किसी ने एकदम नदी किनारे का रास्ता बता दिया. परिचित चेहरे भी मिल गए, लेकिन लताजी ढँक चुकी थीं. उनका शाल किनारे पड़ा था. मुझे पाँचेक मिनट की देर हो गई. मैं लताजी से मिल नहीं पाई. मन तो किया कि किसी को कहूँ कि लकड़ी हटाकर मुझे मिला क्या दो, दिखा भर दो. मगर कैसे कहती ? मैं न परिवार की सदस्य थी, न सहकर्मी, न गहरी दोस्त ! तुरत मुखाग्नि दे दी गई. किसी ने बताया कि लताजी के बड़े भाई इलाहाबाद से पहुँच गए थे. उनके चेहरे में थोड़ा लताजी का चेहरा भी झाँक रहा था. आसपास NCERT के साथी थे और कुछ पड़ोसी. मैं खड़ी होकर सोच रही थी कि आज जब मोढ़े पर खोल चढ़ा रही थी तो मैंने याद किया था कि वे मोढ़े मैंने जयपुर में साथ खरीदे थे. उस समय मैंने लताजी का साथ याद किया था, केवल उनका नाम सरोज को नहीं बताया था. उसकी सज़ा थी क्या यह ?
मैं इंदुजी से बात करने लगी. पता चला कि अस्पताल में दाखिल होने के बाद लताजी को एक के बाद एक करके कुल तीन दिल के दौरे पड़े जो जानलेवा साबित हुए. हम तीनों की मुलाकात अक्सर उदयपुर में हुआ करती थी. इंदुजी उम्र में लताजी से छोटी हैं, लेकिन दोनों की खूब पटती थी. थी ? अब है नहीं कह सकते न ? मेरी लताजी से पहली मुलाकात 2012 के जून महीने में जयपुर में हुई थी. हालाँकि उनके नाम और उनके भाषा संबंधी काम से काफी पहले से परिचित थी. अपूर्वानंद के लिए 2006-7 से उनका फोन आता था तो कई बार मैंने बात की थी. हमेशा मीठे ढंग से बात करती थीं. उनकी आवाज़ में औपचारिकता नहीं, बल्कि सचमुच मिठास रहती थी. मेरी बेटी भी जब फोन उठाया करती थी तो उससे दो की जगह चार बातें करना उनको अच्छा लगता था. राजस्थान के लिए हिंदी की पाठ्य पुस्तक बनाने के क्रम में हम मिले. ऐसा लगा कि सचमुच बरसों से एक दूसरे को जानते हैं. हमारा मिलना उदयपुर में ही ज़्यादा हुआ, दिल्ली में तो केवल NCERT की कार्यशालाओं में आते-जाते मिले. उदयपुर में साथ में फिल्म देखी. दिन भर के काम के बाद जयपुर में भी हम नाइट शो देखकर आए. अगल-बगल के कमरे में रहने का लाभ उठाकर सुबह-शाम की चाय से लेकर खाना-नाश्ता सब साथ रहा. बाज़ार में भटक-भटक कर साड़ी, शलवार-कुरता, चादर-चूड़ी से लेकर अचार, हींगोली वगैरह सब खरीदने में हम दोनों को मन लगता था. बैठकर साहित्य और शिक्षा की दुनिया की नुक्ताचीनी करने में भी हम समय खर्च करते थे. लताजी की सबसे अच्छी बात यह थी कि उनका स्वर शिकायती नहीं रहता था. इलाहाबाद रेडियो स्टेशन से लेकर मैसूर-अजमेर-दिल्ली NCERT तक की उनकी यात्रा आसान नहीं थी. अकेले रहना भी कम संघर्षपूर्ण नहीं होता. कैसे उनके डैडी बीमार हुए, कैसे वे अपनी माँ का शव लेकर अकेले अजमेर से इलाहाबाद गईं, कैसे वे अपनी बहन के साथ रहती हैं, कब उन्होंने लिखना-पढ़ना शुरू किया, कब वे किताबों को रूप देने लगीं, कब कब उनके घरेलू नुस्खे बीमारी में काम आए, कैसे चुलबुल (लताजी का कुत्ता) आम खाता है और उनके लौटने की राह देखता है - यह सब मैंने जाना-सुना था.
चलते-चलते लताजी के नंबर पर फिर फोन लगाया. किसी पुरुष ने बताया कि वे लोग घाट पहुँच गए हैं. इतना मैंने पूछ लिया कि क्या बिजली से दाह संस्कार हो रहा है. जवाब मिला कि नहीं, लकड़ी से. मेरी चाल तेज़ हुई और मैं विश्वविद्यालय मेट्रो की दिशा में बढ़ी. आगे चलकर बीसियों ऑटोवालों से पूछने के बाद एक ने कृपा की. मैं पहुँच गई. अंदर जाकर खोजना शुरू किया. लताजी को नहीं, NCERT के परिचित चेहरों को. कहीं पंजाबियों का समूह था, कहीं साधारण रहन-सहनवाले लोगों का समूह था. अस्मिता के सहारे समूहों को पहचानते हुए मैं आगे बढ़ रही थी. कई समूह के पास जाकर दाह संस्कार किसका किया जा रहा है यह भी पूछ लिया. जब उलझ गई तब इंदुजी से दुबारा फोन से पूछा कि आपलोग किधर हैं. अब न उत्तराखंड मुझे पता था और न यमुना किनारे जाने का रास्ता मिल रहा था. खैर, फिर किसी ने एकदम नदी किनारे का रास्ता बता दिया. परिचित चेहरे भी मिल गए, लेकिन लताजी ढँक चुकी थीं. उनका शाल किनारे पड़ा था. मुझे पाँचेक मिनट की देर हो गई. मैं लताजी से मिल नहीं पाई. मन तो किया कि किसी को कहूँ कि लकड़ी हटाकर मुझे मिला क्या दो, दिखा भर दो. मगर कैसे कहती ? मैं न परिवार की सदस्य थी, न सहकर्मी, न गहरी दोस्त ! तुरत मुखाग्नि दे दी गई. किसी ने बताया कि लताजी के बड़े भाई इलाहाबाद से पहुँच गए थे. उनके चेहरे में थोड़ा लताजी का चेहरा भी झाँक रहा था. आसपास NCERT के साथी थे और कुछ पड़ोसी. मैं खड़ी होकर सोच रही थी कि आज जब मोढ़े पर खोल चढ़ा रही थी तो मैंने याद किया था कि वे मोढ़े मैंने जयपुर में साथ खरीदे थे. उस समय मैंने लताजी का साथ याद किया था, केवल उनका नाम सरोज को नहीं बताया था. उसकी सज़ा थी क्या यह ?
मैं इंदुजी से बात करने लगी. पता चला कि अस्पताल में दाखिल होने के बाद लताजी को एक के बाद एक करके कुल तीन दिल के दौरे पड़े जो जानलेवा साबित हुए. हम तीनों की मुलाकात अक्सर उदयपुर में हुआ करती थी. इंदुजी उम्र में लताजी से छोटी हैं, लेकिन दोनों की खूब पटती थी. थी ? अब है नहीं कह सकते न ? मेरी लताजी से पहली मुलाकात 2012 के जून महीने में जयपुर में हुई थी. हालाँकि उनके नाम और उनके भाषा संबंधी काम से काफी पहले से परिचित थी. अपूर्वानंद के लिए 2006-7 से उनका फोन आता था तो कई बार मैंने बात की थी. हमेशा मीठे ढंग से बात करती थीं. उनकी आवाज़ में औपचारिकता नहीं, बल्कि सचमुच मिठास रहती थी. मेरी बेटी भी जब फोन उठाया करती थी तो उससे दो की जगह चार बातें करना उनको अच्छा लगता था. राजस्थान के लिए हिंदी की पाठ्य पुस्तक बनाने के क्रम में हम मिले. ऐसा लगा कि सचमुच बरसों से एक दूसरे को जानते हैं. हमारा मिलना उदयपुर में ही ज़्यादा हुआ, दिल्ली में तो केवल NCERT की कार्यशालाओं में आते-जाते मिले. उदयपुर में साथ में फिल्म देखी. दिन भर के काम के बाद जयपुर में भी हम नाइट शो देखकर आए. अगल-बगल के कमरे में रहने का लाभ उठाकर सुबह-शाम की चाय से लेकर खाना-नाश्ता सब साथ रहा. बाज़ार में भटक-भटक कर साड़ी, शलवार-कुरता, चादर-चूड़ी से लेकर अचार, हींगोली वगैरह सब खरीदने में हम दोनों को मन लगता था. बैठकर साहित्य और शिक्षा की दुनिया की नुक्ताचीनी करने में भी हम समय खर्च करते थे. लताजी की सबसे अच्छी बात यह थी कि उनका स्वर शिकायती नहीं रहता था. इलाहाबाद रेडियो स्टेशन से लेकर मैसूर-अजमेर-दिल्ली NCERT तक की उनकी यात्रा आसान नहीं थी. अकेले रहना भी कम संघर्षपूर्ण नहीं होता. कैसे उनके डैडी बीमार हुए, कैसे वे अपनी माँ का शव लेकर अकेले अजमेर से इलाहाबाद गईं, कैसे वे अपनी बहन के साथ रहती हैं, कब उन्होंने लिखना-पढ़ना शुरू किया, कब वे किताबों को रूप देने लगीं, कब कब उनके घरेलू नुस्खे बीमारी में काम आए, कैसे चुलबुल (लताजी का कुत्ता) आम खाता है और उनके लौटने की राह देखता है - यह सब मैंने जाना-सुना था.
लताजी की दुनिया लिखाई-पढ़ाई की दुनिया थी. बच्चों को
लेकर वे दिल से सोचती थीं. पाठ्यपुस्तकों के लिए सामग्री लाने और जुटाने में हमेशा
अव्वल रहती थीं. उनके पास पराग, बाल
भारती जैसी पत्रिकाओं के पुराने-पुराने अंक थे और उनको न जाने कब कब की पढ़ी हुई
कविया या कहानी याद रहा करती थी. पाठ्यपुस्तकों में अभ्यास बनाते समय भाषा संबंधी
उनके सुझाव बड़े अच्छे हुआ करते थे. वे कभी बहुत अड़ती नहीं थीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि
उनके विचार पुख्ता नहीं थे. वे शांत ढंग से बात करने और बात मनवाने में माहिर थीं.
शौक़ीन भी थीं, लेकिन
खाने-पीने सबमें एहतियात बरतती थीं. मैं लापरवाही बरतती थी तो मुझे टोकती थीं. एक
दो बार उनके साथ मैं उदयपुर में सुबह की सैर पर भी गई, वरना घर छोड़ते ही मैं सुबह की सैर
गोल कर जाती हूँ और अपने डायबटीज़ को भूल जाती हूँ. एक बार रात में FB पर गप्प करके विदा लेते हुए
उन्होंने कहां "शुभ रात्रि". मैंने लिखा, "स्वीट ड्रीम्स भी लगे हाथ." उन्होंने लिखा, "हा हा हा ज़रूरी हैं." मैंने
मज़ाक किया,
"लेकिन सुगर फ्रीवाला
स्वीट". उनका जवाब था, "हाँ, हम दोनों के लिए तो यही
चलेगा."
दूसरों की मदद के लिए तत्पर रहनेवाली लताजी का अंतिम sms इंदुजी दिखा रही थीं. उन्होंने
अस्पताल से ही घर में काम करनेवाले (शायद पेंटर) से संपर्क करने के बारे में लिखा
था. सुनकर नीरजा दी' भी
अपना किस्सा सुनाने लगीं. नीरजा रश्मि का जब पैर टूटा था तो लताजी आगे बढ़कर उनके
पास आईं और अपने पैर टूटने के अनुभव का हवाला देकर घरेलू नुस्खे बताने लगीं. मुझे
याद आया कि एक बार उदयपुर में मेरी साड़ी का पूरा फॉल एक तरफ से उधड़ गया. यात्रा का
अंतिम दिन था और मेरे पास कोई धुला हुआ कपड़ा न बचा था क्योंकि बोझा कम करने के
खयाल से दिन के हिसाब से गिनकर मैं कपड़े ले जाया करती थी. अब क्या करूँ ? लताजी को बुलाया. उन्होंने फौरन
उपाय सुझा दिया. होटलवाले से उन्होंने स्टेपलर मँगवाया और खुद पूरी साड़ी में
स्टेपल से फॉल टाँक दिया. हमारी कार्यशाला का वक्त हो चला था और मैंने साड़ी पहनने
के बाद देखा था कि फॉल लटक रहा है. मेरे साड़ी पहने हुए में ही लताजी ने झुककर सारा
स्टेपल किया. काश कोई ऐसा स्टेपलर होता जो दो फाँक हो गए जीवन को भी स्टेपल कर देता
! टिकाऊ न सही, कम
से कम वक्ती मरम्मत हो जाती और फिर हम सब मिलकर लताजी को बचा लेते !
अभी अक्टूबर के अंत में उनके विभाग में एक कार्यशाला में
मेरा जाना हुआ था. व्यस्त रही, इसलिए
सोचा कि अगली बार लताजी से मिलूँगी. जबकि सिर्फ एक तल्ला ऊपर उनका दफ्तर था. उसके
पहले शायद जून की कार्यशाला में उनसे मिलने गई थी. उन्होंने प्यार से अपने चैंबर
में बैठाया. मैं बिना चाय पिए भाग रही थी, लेकिन
उन्होंने आग्रह किया कि चाय के बहाने ही थोड़ा बैठ जाऊँ. बातचीत में यह तय हुआ कि
मैं पंडिता रमाबाई पर लिखकर उनकी पत्रिका के लिए दूँगी. फिर हिंदी में अनुवाद की
समस्याओं पर बात चल निकली. उसके बाद उनकी बनाई चाय का स्वाद लेकर मैं नीचे आ गई -
अपनी कार्यशाला में. उसके बाद बीच में एकाध बार फोन पर बात हुई. हम बोलते थे कि
दिल्ली में इत्मीनान से मिलेंगे कभी, मगर
वह कभी कभी नहीं आया ! मृत्यु की छाया पूरे दिन पर ऐसी पड़ी कि अब तस्वीरों में एक
तस्वीर लताजी की भी जुड़ जाएगी.
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