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सोमवार, 24 नवंबर 2014

उदासी (Udasi by Purwa Bharadwaj)

मन उदास है. यों उदासी की वजह कई हो सकती है, लेकिन आज खुर्शीद के जन्मदिन को याद करके मन भारी है.

उदासी शायद याद से अनिवार्यतः जुड़ी होती है. कुछ न कुछ याद करके ही हम उदास हो जाया करते हैं. मुझे 'हिरोशिमा के फूल और वियतनाम को प्यार' किताब उदास कर देती है कभी कोई इंसान याद आता है, कभी किसी की कोई बात, कभी किसी की कोई हरकत, कभी कोई घटना, कभी कोई रिश्ता. इन सबके मूल में कोई न कोई भावना होती है जिसे हम याद करते हैं, जैसे प्यार-मुहब्बत, लाड़-दुलार, मान-अपमान या लड़ाई-झगड़े को. इंसान और इंसानी भावनाओं से जुड़ी कोई जगह या घर या नदी या फिल्म या गीत या सामान ... कुछ भी याद आ जाता है. बाज़ दफ़ा याद की कोई शक्ल भी नहीं होती और उसका अहसास भर आपको उदास कर देता है.

अधिकतर व्यक्ति के संदर्भ से और उसकी पहचान से उदासी का कारण, उसका स्वरूप और उदासी व्यक्त करने का तरीका निर्धारित होता है. बच्चा क्यों और कैसे उदास होता है, गरीब औरत की उदासी कैसी होगी, शारीरिक या मानसिक रूप से विशेष आवश्यकतावाले किशोर की उदासी कब और कैसे व्यक्त होगी, एक शहरी धन्ना सेठ क्योंकर उदास होगा, मेले में खेल दिखानेवाली नट लड़की की उदासी किसको दिखेगी - इनके जवाब खोजने के लिए व्यक्ति विशेष और उसके परिवेश को समझना पड़ता है.
मगर व्यक्ति केंद्रित हो उदासी, यह आवश्यक नहीं है. हिरोशिमा और वियतनाम आपको उदास कर जा सकता है तो बामियान बुद्ध का भंजन और शामली में लगा शिविर भी. अक्सर परिचय के दायरे में आनेवाली बातें उदासी की वजह बनती हैं, परंतु दूर-दराज़ की अपरिचित चीज़ें भी वजह बन सकती हैं. आज मैंने केनिया में हिंसा की खबर पढ़ी तो मन उदास हुआ. याद के अलावा खबर में उदासी के बीज छिपे होते हैं. दुनिया के किसी भी हिस्से की कोई खबर आपको उदास कर जाती है. जो घट चुका है, वही नहीं, बल्कि भविष्य में आनेवाली खबर भी आपको पहले से उदास कर जा सकती है. उसमें यदि आप असहाय हैं, कुछ बदल नहीं सकते हैं तो तीव्रता बढ़ जाती है. यदि आप हालत में थोड़ा भी परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं तो उदासी घट सकती है, छँट सकती है.

मेरे हिसाब से ज़रूरी नहीं कि हमेशा उदासी दुख, निराशा, तकलीफ और दर्द से जुड़ी ही हो. बहुत खुशगवार और खुशनुमा चीज़ें भी उदास कर जा सकती हैं. कुछ खोने, गँवा देने, छूट जाने से ज़रूर उदासी आपको घेर लेती है, मगर उस उदासी का कारण मालूम होने से उस पर काबू पाना आसान होता है. परेशानी तब बढ़ती है जब आपको उदासी का कारण समझ में नहीं आता, जब खुशी में उदासी के कण घुल-मिल जाते हैं. दूसरों को ही नहीं, खुद को भी यह अजीब लगता है, लेकिन इस पर बस तो है नहीं ! संभवतः भावी दुख-तकलीफ की आशंका उसकी जड़ में होती होगी जिस पर हम ऊँगली भी नहीं रखना चाहते हैं.

हर हाल में उदासी से मुझे छुट्टी चाहिए. मुझे ही नहीं, अधिकांश लोगों को इससे घबराहट होती है. हम जल्दी से जल्दी से इससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करते हैं. घरेलू नुस्खे अपनाते हैं, आस-पड़ोस की राय पर चलते हैं, दोस्त-मुहिम का साथ मुट्ठी में पकड़ कर बैठ जाते हैं और भरसक अपने को व्यस्त रखते हैं. लेकिन कई बार उदासी का हल राजनीतिक होता है जो होता नहीं है. पूरे के पूरे समुदाय, पूरी की पूरी कौम को उदासी में धकेलने की जिम्मेदारी भला कौन लेता है ?

उदासी की अपनी लय होती है. वह कभी ऊबड़-खाबड़ होती है और कभी समगति. लय में आने के पहले ही इसे ख़त्म कर देना चाहिए, वरना यह अच्छी लगने लगती है. उदासी का एक पहलू खूबसूरती है और खूबसूरती का भी एक पहलू उदासी है. इससे मोह हो जाता है और फिर यह कुंडली मारकर बैठने लगती है. लोगों का ध्यान खींचने लगती है और तब हम उसका रस लेने लगते हैं. उदास होना काव्यमय हो जाता है. उदास औरत, उदास व्यक्तित्व, उदास रात, उदास शाम, उदास कविता, उदास फूल, उदास चाँद और न जाने क्या-क्या ! गनीमत है कि मैं कविता नहीं लिखती हूँ वरना कब का उदासी पर लिख मारती.
अक्सर उदासी निष्क्रियता की तरफ ले जाती है. बहुत शोर-शराबे, भीड़-भाड़ और नाच-गाने के बीच भी यदि आप उदास महसूस कर रहे हैं तो आपको कुछ करने का मन नहीं करता है. हाथ-पैर क्या, ज़बान हिलाने का मन भी नहीं करता है. चुप्पी से उदासी का रिश्ता तो जाना-पहचाना है. मेरे साथ अक्सर यह होता है और मैं उसका कारण खोजने में उलझ कर रह जाती हूँ. मुझे लगता है कि अकेलापन महसूस करना उदासी को जन्म देता है और आप फिर सबसे अपने को काटने लगते हैं और फिर उदासी गहराती जाती है. हालाँकि मैंने मनोविज्ञान नहीं पढ़ा है (इंटरमीडिएट को छोड़कर), लेकिन लगता है कि यह पूरा चक्र है क्योंकि अकेलापन उदासी का परिणाम भी है. आप बहुत बार दोस्तों-हितैषियों को परे धकेलकर जबरन अकेलापन ओढ़ भी लेते हैं.
जब उदासी आपको आक्रामक बना दे तब चिंता होने लगती है. उसके पहले जब तक आप अकेले उससे जूझ रहे हों मामला हाथ में रहता है, भले वह आपको अंदर ही अंदर खोखला कर दे. तबतक दुनिया बाखबर होकर भी बेखबर बनी रहती है. नींद टूटती है तब जब उदासी का लावा फूटता है. यह आस-पास को भी प्रभावित करता है. अपने आपको तो नष्ट कर ही देता है.
यदि उदासी क्षणिक है तब तो उससे निपटा जा सकता है, लेकिन वह लंबे समय तक तारी रहे तो मारक होता है. जैसे भँवर होता है वैसे ही है उदासी. आप उसमें गहरे फँसे तो फँसते ही चले जाते हैं. इसलिए उदासी को अवसाद की दिशा में बढ़ने नहीं देना चाहिए जो कि भँवर के भीतर का भँवर है. इससे खींचकर निकालने के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए - बिना इसकी परवाह किए कि व्यक्ति कौन है. आज मैं यह नहीं सोच रही हूँ कि मेरे लिए किसी ने हाथ बढ़ाया या नहीं, बल्कि यह सोच रही हूँ कि मैं हाथ बढ़ाने में कब कब चूक गई हूँ !

बड़े दिनों बाद आज फिर हेमंत कुमार का यह गाना सुना था - "बस एक चुप सी लगी है. नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है..."


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