दोस्ती क्या है ? इस प्रश्न से बड़े बड़े दार्शनिक भी जूझते रहे हैं और अदना से अदना इंसान भी. जूझना, समझना और उससे भी बढ़कर है उसे जीना ! पिछले दिनों अपूर्व मित्रता पर लिख रहे थे तो उनसे बातचीत होती रही है. कल उन्होंने CSDS में आयोजित 'Friendship in the Western Tradition: from Aristotle to Derrida' विषय पर Suzanne Stern-Gillet के भाषण की भी चर्चा की. मैंने सही मायने में कभी इस पर ध्यान नहीं दिया यानी दोस्ती को परिभाषित करने या समझने का प्रयास नहीं किया, बावजूद इसके कि दूसरों की तरह दोस्ती मेरे लिए भी अहम रही है. दूसरों की तरह दोस्ती दूटने और छूट जाने की तकलीफ और मलाल से गुज़री हूँ. कई दोस्ती को बचाने की कोशिश की, मगर बचा न सकी. कम से कम उसे अपने लिए सहेज पाई हूँ, इसका संतोष है. हालाँकि पटना से जब दिल्ली आई थी तो एक तरह से मैंने कसम खा ली थी (कुछ कुछ तीसरी कसम टाइप) कि नई दोस्ती नहीं करूँगी. अपूर्व की यह शिकायत रही कि तुम अच्छी चीज़ों को रोकती हो, प्रतिरोध करती हो और cynical हो. मेरा तर्क था कि दोस्ती से अनिवार्यतः दर्द भी जुड़ जाता है और मुझे अब नया कुछ मोल नहीं लेना है. अपने पक्ष में आफ़ताब साहब की अम्मा की बात मैं दुहरा दिया करती थी कि जो दोस्ती है उसे ही निभा लो तो बड़ी बात है. फिर भी दिल्ली ने नई दोस्ती दी. एक नहीं, कई. उनमें से खुर्शीद भी थे. खुर्शीद बड़े थे, लेकिन उनको भी मैं दोस्त ही कहूँगी. ऐसी ही थीं लता जी.
FB ने पुराने पुराने दोस्तों को सामने ला खड़ा किया. बीस साल-तीस साल-चालीस साल पुरानी दोस्ती को एक माध्यम मिला. यही नहीं, दोस्त के दोस्त, भैया के दोस्त तो माँ-पापा के दोस्त भी संपर्क में आए. मैं सोच रही थी कि दोस्ती में पुरानापन बहुत मायने रखता है. जितनी पुरानी दोस्ती उतनी गहराई, उतनी यादें. और उतना ही बड़ा शिकायतों का पिटारा ! जो भी हो पुरानी दोस्ती क्यों अधिक खींचती है ? बचपन या किशोरावस्था के अल्हड़पन और बेफिक्री के अलावा उसमें क्या है जो अधिक टिकाऊ है ? मुझे लगता है कि शायद उन दोस्तियों में सत्ता संबंधों में बहुत गैर बराबरी नहीं होती है. उस समय भी जाति, धर्म, पद, जेंडर आदि सबका असर सत्ता संबंधों पर पड़ता है, मगर शायद वयस्कों से कम वे हमें प्रभावित करते हैं. बड़े हो जाने पर जो दोस्ती होती है उसमें दोस्ती को कोने में धकेलने में इन सबकी ही भूमिका अधिक हो जाती है. वैसे ये सब पुरानी दोस्ती को भी डिब्बे में बंद कर देते हैं. फिर भी यदि आपके जीवन में थोड़ा ठहराव आ गया है, आप सुरक्षित महसूस कर रहे हैं (नौकरी से लेकर रिश्तों तक में) तो आप पुरानी दोस्ती को पहला मौका मिलते ही पुनर्जीवित करना चाहते हैं.
इसका यह मतलब नहीं है कि नई दोस्ती में चमक कम होती है या यह जल्दी सँभलती नहीं है. यह कोई नया चावल तो है नहीं जो सँभाले सँभले नहीं ! हाँ, उछाह और सतर्कता दिखाने की ज़रूरत होती है. दिखाने की इसलिए कि इसमें इत्मीनान आते आते आता है. आपकी लापरवाही दोस्त को अखर सकती है और उससे ठंडापन आने लगता है. जबकि दोस्ती के लिए गर्माहट चाहिए. उसके लिए प्रदर्शन का तड़का चाहिए. प्यार-मुहब्बत से एक फर्क यह है कि दोस्ती को छिपाने की ज़रूरत कम पड़ती है. यदि दोस्त में कोई ऐब हो या आप बदनाम हों तभी गोपनीयता बरतने की बात उठती है. तब दोस्ती लोगों को खतरनाक मालूम पड़ने लगती है और उसे ख़त्म करने का दबाव पड़ने लगता है. वैसे अमूमन दोस्ती को मूल्य ही माना जाता है.
मेरा ख्याल है या कहना चाहिए मेरा अनुभव है कि जो असुरक्षित है, विचलित है, वह दोस्ती करने से और उसे जोगाकर रखने से भी डरता है. कारण, दोस्ती आपको निष्कवच कर देती है. अपूर्व बता रहे थे कि Suzanne Stern-Gillet के भाषण में सैद्धांतिक पक्षों को रखते हुए बताया गया कि दोस्ती में आप अपने दोस्त से reveal करते हैं. यह आपका सुरक्षा कवच हटा देता है. यह भी कहा जा सकता है कि एक दोस्त अपना सुरक्षा कवच अपने से हटाकर अपने दोस्त को सौंप देता है. वह किसी और तीसरे दोस्त से उसे साझा करता है और इस तरह यह सिलसिला बढ़ सकता है और दोस्ती अंततः आपको खतरे में डाल सकती है. लेकिन यही दोस्ती की कसौटी भी बन जाती है ! सच्चे दोस्त आपको अकेले नहीं पड़ने देते हैं.
परसों मैं अपनी स्कूल और कॉलेज की दो दोस्तों से बरसों बाद मिली. सबकुछ कितना सहज था. लगा कि जहाँ तार छोड़ा था वहीं से जुड़ गया. बीच में पति, बच्चा, नौकरी, ससुराल-मायका कितना कुछ आया, लेकिन उसके आर-पार हम एक दूसरे को देख रहे थे. सचमुच दोस्ती पर्दा हटाना है. इसीलिए पुराने दोस्तों से जब हम मिलते हैं तो उसी ख़ुलूस और बेबाकी से मिलते हैं और वह हमें ज़्यादा पुरसुकून मालूम पड़ती है. हमारा पर्दा उठ जाता है. लेकिन दोस्ती पर्दा रखना भी तो है ! यदि दोस्त का 'सीक्रेट' बता दिया तो फिर दोस्ती पर ही सवाल खड़ा हो जाता है. इस तरह दोस्ती की शर्त है पर्दा हटाना और पर्दा रखना दोनों.
जितना गहरा दोस्त उतना हमराज़ और सुख-दुख का साथी. इसलिए रिश्ते की मज़बूती का पैमाना भी दोस्ती बन जाती है. पत्नियाँ कहती फिरती हैं कि भई, मेरे पति तो मेरे सबसे गहरे दोस्त हैं. (वैसे पत्नी के बारे में पति के मुँह से यह कम सुनने को मिलता है) ननद और जेठानी भी अगर दोस्त हैं तो शादीशुदा ज़िंदगी में बहार है. आजकल सास भी दोस्त बनना पसंद करती हैं और माँ-बाप भी अपने बच्चों (खासकर बेटी) का दोस्त बनने का दम भरते हैं. जब हम तीन मिले तो हमने अपनी दोस्ती को मापा नहीं और न किसी ने कोई दावा किया. हमने अपने बाकी दोस्तों को याद ज़रूर किया. चुन-चुन कर याद किया. किसी को शर्ट के रंग से, किसी को 'दिल की रानी' जैसे पुकार के नाम से, किसी को उसके रॉल नंबर से तो किसी को उसके ठिकाने से ! आज की तारीख में कौन कहाँ है, किसकी शादी देर से हुई, किसके कितने बच्चे हैं, कौन कहाँ काम कर रहा है, कौन अभी भी हवाबाज़ है, किसके पैंतरे अभी बदले नहीं हैं, विदेश कौन कौन चला गया - ये सब हम बतियाते रहे. एकाध के बारे में बुरी खबर सुनी थी उसका भी ज़िक्र आया. एक दूसरे का साथ छूट जाने और संपर्क टूट जाने का अफसोस हम सबको था.
दोस्ती कब किससे होगी, यह पेंचदार है, मगर प्यार की तरह इस पर आपका बस भी नहीं. किससे दोस्ती नहीं करनी है, यह ज़्यादा तय रहता है. आगे चलकर इसे समझने में मुझे जेंडर और यौनिकता के कायदों (norms) से बहुत मदद मिली. अपनी गपशप में हमने असफल दोस्तियों का आनंद लिया. किसने किसको भाव दिया और किसको नहीं दिया - यह याद करना मज़ेदार था. शायद समय को पलटा सकते तो कुछ बदल पाते मेरा अधिक समय AISF में जाया करता था. इस वजह से मेरी दोस्ती कॉलेजवालों से बहुत नहीं रह पाती थी. दोस्ती को तो समय देना पड़ता है न ? वही तो खाद-पानी है. फिर भी कुछ दोस्तों की वजह से ही मैं सबसे जुड़ी रही. मैं गुड़िया को आज भी कहती हूँ कि तुम्हारी वजह से मैं भूगोल विभाग से लेकर लॉजिक की क्लास के लिए राजनीति विज्ञान विभाग के कई कई चक्कर काटा करती थी. गुड़िया मेरे साथ स्कूल में थी. हमारा सेक्शन अलग था, मगर बस स्टॉप एक था. बस की बदमाशियों का साथ कॉलेज में जाकर पक्का हो गया था. स्कूल की तरह कॉलेज में हमारे दोस्तों और दुश्मनों का दायरा अलग-अलग था और समान भी था.
दोस्ती को चलाए रखने के लिए समानता भी ज़रूरी है. या तो आपके शौक एक हों, रहने-पढ़ने या खेलने-कूदने की जगह एक हो या व्यसन एक हो, दुश्मनियाँ एक हों. गाने से लेकर इंसान तक में पसंद मिलती-जुलती हो तो भी दोस्ती जम जाती है. छूटने की वजह बनती है आपमें आनेवाला अंतर. जैसे जैसे अंतर बढ़ता है आप दोस्त से दूर होते जाते हैं. लड़कियों में जगह बदल जाना सबसे ज़्यादा दूरी ले आता है. शादी के पहले की दोस्ती और शादी के बाद की दोस्ती में आपकी जिम्मेदारियाँ, आपकी नई भूमिकाएँ, आपकी प्राथमिकताएँ अंतर ला देती हैं. यह कहनाा कि यह अंतर मानसिक दूरी नहीं ला पाता, गलत होगा. मानसिक दूरी आती है क्योंकि हमको यही सिखाया जाता है कि हमारे लिए दोस्ती नहीं, परिवार अधिक महत्त्वपूर्ण है. हम इसे खुशी-खुशी अपना भी लेते हैं क्योंकि हमें अच्छी बहू, अच्छी पत्नी, अच्छी माँ का दर्जा चाहिए होता है. बहुत कम बार (कम से कम हमारे संदर्भ में) हमारा पेशेवर काम या हमारा पद दोस्ती में आड़े आता है. यदि पेशागत व्यस्तता न मिलने या संपर्क न रखने का कारण है तो उससे किसी का दिल दुखता है - ऐसा मुझे नहीं लगता. मैं भागते-दौड़ते किसी से स्टेशन पर मिलती हूँ, किसी से एयरपोर्ट के गेट पर, किसी से होटल की लॉबी में, किसी से दो मिनट के लिए, किसी से केवल फोन पर बात कर पाती हूँ तो किसी की आवाज़ केवल जन्मदिन पर सुन पाती हूँ तो भी किसी ने मुझसे शिकायत नहीं की. मुझे लगता है कि दोस्त तो आपको समझते हैं और वाकई एक-दूसरे को समझना ही तो दोस्ती की बुनियाद है !
दोस्तियाँ बहुत होती हैं और अलग-अलग तरह की होती हैं. स्कूलवालों से अलग किस्म की, कॉलेजवालों से अलग किस्म की, दफ्तर में अलग किस्म की, पड़ोस में अलग किस्म की. सबसे मज़ेदार यह कि हम सबका एक दूसरे से मिलान करते रहते हैं. कभी किसी को स्केल में पास रखते हैं तो कभी किसी को दूर रखते हैं और फिर सबको खुद खिसकाते रहते हैं मेरी आंदोलन, धरना-जुलूस की दोस्ती भी बहुत है. मतलब आपकी दोस्ती का उत्स जो है वही आपकी दोस्ती का स्वरूप भी तय करता है. आंदोलन और संस्थाओं के दौरान जो दोस्ती होती है वह गाहे बगाहे स्कूल-कॉलेज की दोस्ती की तरह गहरी हो जाती है. कम से कम मेरे साथ तो यह बहुत हुआ है. इसमें यदि आवेग का तड़का लग गया तो पक्का है कि यह दोस्ती टिकेगी. यदि तकलीफों की साझेदारी भी है तब तो इसे चलना नहीं, दौड़ना चाहिए. ऐसी दोस्ती हम सबको मुबारक !
अभी मुझे याद आ रहा है राम सिंहासन. वह मेरे बुनियादी अभ्यासशाला (जिसे सब घुघनिया स्कूल कहते थे) का साथी था. जहाँ तक मुझे याद है उसके पिता किसी हॉस्टल - पटना विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज के हॉस्टल में माली का काम करते थे. राम सिंहासन पढ़ने में कमज़ोर माना जाता था. सातवीं के बाद संभवतः उसकी पढ़ाई छूट गई. वह रिक्शा चलाने लगा था. मैं जब कॉलेज में थी तो एक दिन उससे अजीब तरीके से सामना हुआ. हमारा घर रानीघाट गली (अब सुमति पथ) में था और आम तौर पर उसके मुहाने पर रिक्शा मिला करता था. माँ और मुझे कहीं जाना था. माँ आगे-आगे चल रही थी और मैं पीछे-पीछे. माँ ने बढ़कर रिक्शा ठीक किया और बैठ गई. जब तक मैं देखूँ देखूँ तब तक रिक्शावाला भी तिरछे होकर जाने को खड़ा हो गया. मैं भी बैठ गई. और उसके बाद मैंने देखा कि राम सिंहासन रिक्शा चला रहा है. मुझे काटो तो खून नहीं ! वह भी खामोश और मैं भी खामोश. आज तक उस घटना को भूल नहीं पाई मैं. राम सिंहासन मेरा सहपाठी था. दोस्त नहीं. फिर भी आज दोस्तों के क्रम में याद आया. क्यों ? क्या उस समय मैंने उसे दोस्ती के लायक नहीं माना था ? इसका मलाल है या गुज़रती उम्र मुझे दोस्ती का पाठ पढ़ा रही है ?
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