इन दिनों घर में हूँ तो थोड़ी साज-सँभाल कर पा रही हूँ. आज शाम बारी
बर्तनों की थी. मुझे बहुत चिढ़ होती है जब मैं खाना बनाने या परोसने चलूँ तो ठीक
वही बर्तन समय पर न मिले जो मुझे चाहिए. अब छोलनी चाहिए तो छोलनी ही चाहिए, झंझरा से नहीं चलेगा और न ही बड़े
चम्मच से. इसी तरह लोहे की कड़ाही चाहिए तो हिंडोलियम की कड़ाही से काम चलाना खिझा
देता है. फिर यदि बैंगन की सब्ज़ी का स्वाद गड़बड़ाए तो दोष मेरा नहीं, बल्कि बर्तन का है. इसी चक्कर में
आज मैंने बर्तन का ताखा उकट डाला. मुझे सुबह टिफिन का ढक्कन न मिलने की चिढ़ की
सुरसुरी भी चढ़ गई. यह ठेठ औरतानापन है. हम बर्तनों की दुनिया में रहने के लिए ढाले
गए हैं और इसे हमने आत्मसात भी कर लिया है, वरना
ऐसी भी क्या हाय तौबा !
मेरी दिक्कत क्या है ? बर्तन खोजो तो जगह पर मिलेंगे नहीं. हमारे जैसों की रसोई
तो बहुत करीने से होती नहीं है ! (जाकर महाराष्ट्र में देखना चाहिए ! मुझे वर्धा
के लोगों की रसोई याद आई) मेरी डिज़ाइनर रसोई भी नहीं है जो अलग-अलग खानों में सजे
बर्तन मिल जाएँ. लिहाज़ा लकड़ी के पटरेवाले ताखे (विश्वविद्यालय की कृपा से उसमें
लकड़ी के पल्ले लगे हुए हैं. यह अलग बात है कि उनमें चूहों ने बड़े-बड़े सुराख बना
दिए हैं) पर बर्तन होते हैं. सहूलियत के लिए प्लास्टिक की थोड़ी गहरी ट्रेनुमा चीज़
भी है जिसमें ढक्कन जैसे छोटे-छोटे बर्तन डाल देती हूँ. स्टील का बर्तन स्टैंड
मध्यवर्गीय रसोईघर का हिस्सा है, सो
मेरे यहाँ भी है और मेरे बर्तन स्टैंड पर थाली-तश्तरी (फुल प्लेट-हाफ प्लेट) के
अलावा ग्लास और कुछ कप आ जाते हैं. (वैसे कल ही मैं शामली के कैराना ब्लॉक के विजय
सिंह पथिक राजकीय महाविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने गई थी तो खाना
खाने के लिए हमें जिस कमरे में जहाँ ले जाया गया मैंने वहाँ स्टील का बर्तन स्टैंड
देखा. मुझे लगा कि ज़रूर वहाँ कैंटीन होगी. मालूम हुआ कि वह होम साइंस का लैब है और
इसीलिए स्टैंड के नीचे दो सिंक भी लगे थे) चम्मच स्टैंड भी है ही. काँटी ठोंक ठोंक
कर कुकर के ढक्कन, बड़ी
छन्नी, बैंगन पकानेवाली जाली वगैरह
टाँगने का भी मैंने जुगाड़ बैठा लिया है. मगर कई चम्मच या दिल्लीवालों की ज़बान में
पलटा कहलानेवाला (डोसे का अलग, जालीदार
अलग, दही बड़े के लिए अलग) इधर-उधर मारा
फिरता है क्योंकि वह न चम्मच स्टैंड में जाएगा और न उसके पीछे छेद है जो मैं कहीं
लटका दूँ. काश बर्तन पर नाम लिखवाने की तरह बर्तन को अपनी सुविधानुसार रखने के लिए
हम बर्तन में मनचाही जगह पर छेद करवा पाते ! लेकिन बर्तन के साथ हम जो चाहें कर
सकते हैं क्या ?
बर्तन पर नाम लिखवाने से याद आया जब यह खूब चलन में था.
मेरे ग्लास पर पूर्वा लिखा है और भैया की कटोरी पर चिंतन तो हमें बड़ा मज़ा आता था.
अधिकतर बर्तनों पर पापा का नाम हुआ करता था. मुझे याद नहीं कि माँ का नाम किन
बर्तनों पर था ! शायद कुछ पर उसने शौक से लिखवाया होगा. वैसे लड़की के मायके से
आनेवाले कुछ बर्तनों पर नाम लिखवा दिया जाता था. आधुनिकता के नाम पर यह उदारता
बरती जाती थी ! बर्तन की आधुनिक दुकानों पर मुफ्त में नाम लिखा जाता था, जैसे श्याम स्टील हाउस या बासन
(पटना) में. बाद में फेरी पर बर्तन बेचनेवाले भी मशीन लेकर घूमने लगे. तीन साल
पहले फुलवारी शरीफ में जब मैं बक्खो समुदाय के बीच शोध का काम कर रही थी तो वहाँ
बर्तन की फेरी लगानेवाली औरतों ने मुझे बताया था कि आजकल बर्तनों पर नाम लिखवाने
का फैशन चला गया है. अभी मुझे मन कर रहा है कि इसका पूरा समाजशास्त्रीय विश्लेषण
कहीं पढ़ने को मिल जाए कि कब कहाँ और कैसे बर्तन पर नाम लिखवाना शुरू हुआ. यह केवल
फैशन था या रसोई से रिश्ता मजबूत बनाए रखने की युक्ति थी ? यह ख़त्म क्यों हुआ ? और बर्तनों को केंद्र में रखकर
आजकल कौन सी युक्ति चल रही है ?
समझा जाता है कि बर्तन गृहिणी के जिम्मे होते हैं, मगर उनके इस्तेमाल से लेकर
खरीदने-बेचने का हक़ भी औरतों को नहीं हुआ करता है. या नहीं हुआ करता था ? मेरी माँ को मायके से जो बर्तन
मिले उनमें से कुछ बिना उससे पूछे मेरी फुआ की शादी में दे दिए गए, इसका किस्सा मैंने सुना है. उसी
तरह मामा-बाबा (दादी-दादा) की मृत्यु के बाद पीतल का परात और पीतल की कठौती किसे
मिलेगा,
यह विवाद का मुद्दा
रहा. असल बात यह है कि बर्तन संसाधन भी हैं और विरासत भी. किसे क्या मिलेगा और कब
मिलेगा और किसकी इजाज़त से मिलेगा, इसका
फैसला तो पितृसत्तात्मक परिवार ही करता है न !
शादी-ब्याह में प्रदर्शनीय वस्तु की तरह बर्तन कितने
महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, यह
अभी सोच रही हूँ. खूँटे की तरह. बेटी को शादी में बर्तन देकर (गहना-गुड़िया और
कपड़ा-लत्ता जोड़कर) मान लिया जाता है कि उसका हिस्सा दे दिया गया. शुरुआत
सोने-चाँदी से करते हैं. जिसकी जितनी हैसियत उतनी महँगी धातु का बर्तन. कुछ नहीं
तो कम से कम पाँच चाँदी के बर्तन होने ही चाहिए. चाँदी का गगरा न हो तो लोटा ही
सही. उसके बाद फूल और पीतल-काँसा के बर्तन का नंबर आता है. फूल इसलिए कि पवित्र
धातु है और जो जितना पवित्र होता है वह उतना महँगा ! स्टील की औकात कम थी, इसलिए पहले स्टील के बर्तन नहीं
दिए जाते थे. मगर जब 70 के
दशक में इसका प्रचार बढ़ा और स्टील के किचेन सेट और डिनर सेट बाज़ार में छा गए. उनका
असर तुरत तिलक-फलदान पर पड़ा और हमें चमचमाते स्टील के बर्तन से घिरे दूल्हे महोदय
भले लगने लगे ! बर्तनों को करीने से सजाया जाता था, नातेदारों-मोहल्लेवालों को दिखाया जाता था ताकि लोग
लड़कावाले और थोड़ी कम, मगर
लड़कीवाले की हैसियत भी देख लें. लड़की की हैसियत का कहीं ज़िक्र नहीं होता. प्रायः
लड़की तो बर्तन की तरह हस्तांतरित होने को अभिशप्त है ! इन दिनों एक वर्ग में जब
तिलक-फलदान की रस्म की जगह इंगेजमेंट और लेडीज़ संगीत होने लगे हैं, तब बर्तन रस्मों में दिखाए नहीं
जाते, बल्कि खुद ब खुद मॉड्यूलर किचेन
में सज जाते हैं !
मुझे माँ का बर्तनों को नाम देना अच्छा लगता था. यह नाम
कभी नंबर होता था कभी उसका आकार तो कभी उसका दाम. जैसे मेरे यहाँ नौ रुपएवाली
कटोरी थी और पहलवाली तश्तरी थी. 8-10 भगोनों
में सबसे ज़्यादा 4 नंबर
और 2 नंबर वाला भगोना इस्तेमाल होता
था. अपनी शादी के बाद मैं जब अलग हुई तो पुराने भगोनों का नंबर नहीं भूली, मगर जब उनकी संख्या 20-25 हो गई तो नए भगोनों का नंबर याद
नहीं हो सका. इसने कहीं न कहीं मेरा दुख बढ़ाया होगा, क्या इसे कोई समझ सकता है ? शादी के बाद घर छूटना में बर्तनों
से छूटना भी तो है !
नए घर में, चाहे
वह ससुराल हो या आपका डेरा हो, बर्तनों
से दोस्ती होते-होते होती है. और इससे पहचान होती है कि बहू और पत्नी के रूप में
आपने कितना अपने घर को अपनाया है ! एक समय आता है कि आप मायके के बर्तनों का
स्पर्श भूल जाते हैं. मैं भी बहुत कुछ भूल गई हूँ. मुझे अब खड़े किनारेवाली तश्तरी
छूकर वह नहीं लगता जो पहले माँ उसमें चूड़ा-मटर देती थी तो लगता था. सीवान के बाद
अब चंडीगढ़ में कौन सा बर्तन नया है, यह
शायद याद रहता है. पिछली यात्रा के बाद चंडीगढ़ की अगली यात्रा में कप का डिज़ाइन
बदल जाता है तो वह भी ध्यान खींच लेता है. तो बर्तन अलगाव और समावेश का ज़रिया
अनजानते बन जाता है न ?
मेरे घर में कौन बर्तन कैसे और कब आया, यह संदर्भ मुझे अधिक याद रहता है.
जैसे कटहल काटने के लिए मैं जैसे ही बड़ा चाकू (यह चौपर जैसा है और खासा बड़ा है)
उठाती हूँ मुझे याद आता है कि इसे मेघालय की तरफ से उपहारस्वरूप ननदोई लाए थे या
बोरोसिल वाला ग्लास नीरा भाभी ने मेरी शादी की दूसरी वर्षगाँठ के मौके पर मुझे
दिया था या तीन साल पहले धनतेरस में मैंने नयावाला कुकर खरीदा था या पुआ बनाने के
लिए लोहे की ताई देवघर से आई थी. कुछ यही आदत मेरी बेटी की है. उसे भी फलाना कप या
फलानी प्लेट चाहिए. इन संदर्भों की वजह से ही शायद टूटे और घिसे बर्तनों का मोह भी
ज़्यादा होता है. मुझे अपना गैस तंदूर नहीं भूलता जिसमें पटना में मैं खूब लिट्टी
बनाती थी और एक बार मैंने उसी में बनाकर पिज़्ज़ा पार्टी की थी. बर्तन में यदि
संदर्भ पिरोए हुए हैं तो क्या इसका मतलब लोगों और जगहों की याद ही बर्तनों को
महत्त्वपूर्ण बना देते हैं ?
प्रतिरोध और गुस्से के इज़हार में बर्तन की भूमिका से हम
सब परिचित हैं. इसीलिए घरवालों को सबक सिखाने के लिए अपने बर्तन अलग कर लेने का
नुस्खा भी चलता है. माँ जब गुस्से में रहती थी तो ढेर सारा बर्तन मलने बैठ जाती
थी. अब श्रम के साथ जेंडर के रिश्ते की समझ ने बर्तनों के साथ औरतों के बर्ताव और
उनकी मनःस्थिति को नई निगाह से देखने का अवसर दिया है. घरों में काम करनेवाली का
तनाव बर्तनों की झनक-पटक के रूप में निकलता है. यदि किसी पर बस नहीं चले तो गुस्सा
भी बर्तनों पर निकलता है. रसोई से ठांय-ठांय की आवाज़ आ रही है तो इसका मतलब है कि
असल में हलचल कहीं और मची है. वैसे गुस्सा भी अलग-अलग ढंग से बर्तन पर और बर्तन के
ज़रिए निकलता है. हमारे एक मित्र ने गुस्से में ग्लास को इतनी ज़ोर से दबाया कि वह
पिचक ही गया. खाना खराब होने पर या कुछ भी नागवार गुज़रने पर घर के पुरुष थाली
भंजाकर फेंक दिया करते हैं. सभ्य हुए तो खिसकाकर उठ जाएँगे और अगले को संदेश मिल
जाएगा कि कायदे से रहिए !
छूत-छात में बर्तन हथियार का काम करते हैं. बर्तन अलग
करना तो धर्मनिकाले या जाति बाहर करने जैसी सज़ा है और इस बहाने आपको अपने दायरे
में रहने को कहा जाता है. मुसलमान और तथाकथित नीची जाति क्या, गरीब रिक्शावाले के लिए भी अलग
बर्तन रखते हैं लोग. एक दिन मैंने दो घर छोड़कर काम कर रहे मज़दूर को बोतल के साथ
ग्लास दे दिया तो रसोई में मेरी मदद करनेवाली मंजु ने ऐतराज किया. बर्तन हर जगह
सद्भाव,
समानता और अधिकार का
प्रतीक बने रहें, यह
कामना क्या की जा सकती है ? दूर
से अपनी आचमनी से चरणामृत देनेवाले पंडित जी को यह मंजूर होगा क्या ?
बर्तन के साथ पवित्रता का जोड़ उसके उपयोग की जगह और
तरीके पर भी निर्भर करता है. पवित्रता के एक छोर पर पूजा के बर्तन हैं तो दूसरे
छोर पर पाखाने का बर्तन इसी तरह जूठे-सँखरी बर्तन और
निरैठ बर्तन के बीच की खींचतान काफी किचकिच कराती है. शाकाहार और मांसाहार भी एक
बड़ा आधार है बँटवारे का. खासकर मेरे घर में. मेरी माँ मेरे घर में खाती नहीं है
क्योंकि मेरा सारा बर्तन भटभेड़ है. माँ बचपन से शाकाहारी है और उसकी रसोई में
मांस-मछली का प्रवेश निषिद्ध है. वह पटना से आती है तो अपना ग्लास लेकर. धीरे-धीरे
मैंने उसके लिए अलग चूल्हा और ज़रूरी बर्तन ले लिया है. साल-दो साल में जब वह आती
है तो बाहर के स्टोर में रखे उन बर्तनों की किस्मत खुलती है. पहले मैं नाराज़ होती
थी, लेकिन अब मैंने मान लिया है कि
उसको अपने तरीके से रहने का इतना हक़ तो मैं दे सकती हूँ.
पहचान का आधार भी होते हैं बर्तन. तामचीनी के बर्तन से
हमें फौजी याद आते थे या मुसलमान. क्रॉकरी भी रईस मुसलमान घरों की पहचान थी.
हालाँकि अब मध्यवर्ग में इसे अपनाना सुरुचि का प्रमाण बन गया है. रह गई मिट्टी के
बर्तन की बात, तो
एक तरफ पूजा और श्राद्ध से लेकर दही जमाने में इसका इस्तेमाल होता है तो दूसरी तरफ
फुटपाथ या खलिहान में मिट्टी की हांडी चढ़ती है. वह भी साबुत हो ज़रूरी नहीं. गरीब
टूटे-फूटे बर्तन को अपशकुन मानकर नहीं बैठते, बल्कि
गनीमत मानकर उसी में चावल भी पका लेते हैं. द्रौपदी के पात्र का मिथक उनके सामने
सबसे ज़्यादा साफ रहता है ! इस तरह किसी के लिए लक्ष्मी के प्रतीक हैं बर्तन तो
किसी के लिए अभाव और दरिद्रता की पहचान.
खुशी ज़ाहिर करने में बर्तन बजाना कई इलाकों में होता है.
बेटे के जन्म पर थाली बजाना होता है और प्रगतिशील लोग बेटी के जन्म पर भी थाली
बजाने लगे हैं अब किस थाली से कितनी आवाज़
निकालनी है यह परिवार तय करता है और परिवार जिस सामाजिक ढाँचे में पैवस्त है उससे
ग्रहण करता है. ध्यान खींचने के लिए भी बर्तन बजाया जाता है. बर्तन की साझेदारी
प्रेम दर्शाने का तरीका है. नए नवेले जोड़े एक बर्तन में खाकर मुदित होते हैं तो
पति के छोड़े हुए बर्तन में खाना पत्नी धर्म है ! बैना अपने बर्तन में भेजकर हम
दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं. यही नहीं, साथ
रहकर लड़ने-झगड़ने को स्वाभाविक बनाते हुए भी बर्तन को लेकर कहावत है. कहा जाता है
कि जहाँ चार बर्तन होंगे वे ठनकेंगे ही, टकराएँगे
ही. फिर भी ठनकने-खनकने-ढनमनाने के स्वभाव वाले बर्तनों के साथ कठोरता से पेश आना
अच्छी बात नहीं है. नज़ाकत बरतने की माँग सब करते हैं, केवल काँच के बर्तन नहीं.
भई बर्तन की कथा तो बहुत लंबी है ! अब बर्तन के
आकार-प्रकार का अलग खेल है. अलग देश ही नहीं, अलग
इलाके, अलग धर्म अलग वर्ग और अलग
जाति-जनजाति सबके बर्तनों की बनावट में अंतर मिलता है. मगर बधना को नेती करने के
टोंटीवाले लोटे से अलग मानकर मगर उस पर हँसा क्यों जाए ? हाँ, उससे सुरुचि और कुरुचि का रिश्ता
माना हुआ है. अपूर्व को खाने में यदि बड़ा चम्मच चला गया तो उनका मज़ा किरकिरा हो
जाता है. वे उठकर अपनी पसंद का छोटा चम्मच लेंगे. कटोरी में दाल दी गई है तो उसे
भात पर पलट लेंगे क्योंकि उन्हें बर्तन बर्बाद करना पसंद नहीं. वे बर्तन को मेहनत
से सीधे जोड़कर देखते हैं. उनका कहना है कि बर्तन कम खर्च करो, कम गंदा करो ताकि पानी भी बचा
सको. मैं मेहनतवाली तर्क की तो कायल हूँ क्योंकि कुकर-कड़ाही रगड़ना पड़े तो पता चलता
है. हालाँकि आजकल उससे ज़्यादा मेहनत मुझे काँच के बर्तनों की सँभाल और कप की डंडी
और मुड़े हुए किनारेवाली छिपली को ब्रश से साफ करने में लगती है. साबुन-पानी की बचत
पर मेरा उतना ध्यान नहीं जाता क्योंकि तरह तरह के बर्तन निकाल कर उनमें सजाकर खाना
परोसना तो कला है और प्रतिष्ठा का सवाल भी. मैं कामकाजी महिला के साथ कलावंत महिला
भी तो बनना चाहती हूँ ? जिसे
हर वक्त बर्तनों के साथ रहना पसंद न हो, मगर
बर्तनों पर दावा छोड़ना अपना इलाका छोड़ना लगेगा !
वाह,
जवाब देंहटाएंशोधों के इस मायाजाल में बर्तनों के बारे में कोई बात करेगा मालूम नहीं था। लिखने के नाम पर लोगों में उपमाओं की होड़ सी मची है बस, इस भीषण तोड़फोड़ में आपने मुझ जैसे निम्न मध्यमवर्गीय प्राणी के घर में सबसे जरूरी चीज की चर्चा कर के मन खनखना दिया।
आभार।
बहुत ही सुंदर लिखा है मैम।
जवाब देंहटाएंपहले हिस्से में बर्तनों के साथ जुड़ी हुई या उनके माध्यम से याद आ गई कितनी प्यारी यादों का ज़िक्र है।
और दूसरे में इतना विस्तृत बर्तन पुराण। कोई सोच भी नहीं सकता कि बर्तनों के माध्यम से इतने विषयों तक पहुंचा जा सकता है - घर, समाज, पितृसत्ता, भेदभाव, स्त्री मन आदि आदि।
वाह! बहुत सुन्दर।
घर की रसोई से शुरू कर बहुत दूर तक चक्कर लगवा दिया आपने, वाह!