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शनिवार, 1 नवंबर 2014

नानाजी (Nanaji by Purwa Bharadwaj)

आज नानाजी का जन्मदिन है. नानाजी यानी पं. राम गोपाल शर्मा 'रुद्र'. हिंदी और मगही के कवि. अनुवादक, संपादक और अनेक भाषाविद्. हमें उनकी विद्वत्ता से उतना मतलब नहीं था जितना उनके कुर्ते या बंडी की जेब से झाँकती रंग-बिरंगी कलम से. मास्टर साहब लोग के अलावा लाल कलम का कुछ और भी इस्तेमाल हो सकता है यह पहली बार उन्हीं से मैंने जाना. 

लाल कलम से भी ज़्यादा हरी और बैंगनी कलम आकर्षित करती थी. नीली और काली कलम भी उस कतार में थी, मगर उसके रंगो बू से हम वाकिफ़ थे. पहले अधिकतर कलमें स्याही वाली होती थीं और उनकी साज सज्जा में दावात और छोटा सा प्लास्टिक का ड्रॉपर हुआ करता था. बाद में डॉट पेन आ गया तो नानाजी की जेब में वे भी सजने लगे. उनमें से चारमुँहा पेन हमलोग ज़रूर छूकर ...टिप टिप करके देखना चाहते थे. बाद में मुझे लगा कि उस चतुर्मुख की कल्पना कहीं ब्रह्मा से तो नहीं आई थी ! बच्चे इस तरह की अटपटी कल्पना करें तो एक खेल है, लेकिन वयस्क दिमाग में यह आना तो फितूर ही माना जाएगा. अभी तो कहीं कोई संवेदना न आहत हो जाए, इसका भी डर लगना चाहिए ! 

उस समय सबकुछ जादुई लगता था. स्याही भरना, ड्रॉपर का दबाना, उसकी फुस फुस आवाज़ और फिर उसी तरह के ड्रॉपर से होमियोपैथी दवा खिलाना. नानाजी अच्छी खासी होमियोपैथी जानते थे. उनसे माँ और पापा दोनों ने सीखा. दोनों अभी तक गाहे बगाहे होमियोपैथी की किताब लेकर बैठ जाते हैं. मैंने माँ-पापा से कामचलाऊ जानकारी ले ली और जब तक बेटी बड़ी नहीं हुई थी अक्सर उसके सर्दी-जुकाम, लू लगने और आँव पड़ने के लिए होमियोपैथी दवा ही दिया करती थी. यहाँ तक कि कचनार खुद कहने लगी थी कि माँ नैट्रम म्यूर खिला दो या नक्स खिला दो या बेलाडोना खिला दो. कचनार को मीठी गोलियों की पड़ी रहती थी और उस समय कहीं न कहीं मेरे मन में रहता था कि यह नानाजी की परंपरा चली आ रही है. हालाँकि आजकल घर में मेरी दवा का छोटा बक्सा भी नहीं दिख रहा है जिसमें करीने से दवा मैंने भी लगा रखी थी. जब पटना से आते समय माँ ने वह बक्सा मुझे दिया था तब उस वक्त उसने भी शायद नानाजी को याद किया होगा. दवा के बक्से में झाँककर एक एक शीशी को उठाकर सही दवा चुनने का काम नानाजी जिस तरह किया करते थे वह कविता रचने से कम नहीं था. कम से कम उसकी लय कविता रचने की लय थी. उनकी कविता रचने की प्रक्रिया से जो परिचित है उसे पता है कि वाकई उनका 'हर अक्षर है टुकड़ा दिल का'. 

मुझे नानाजी का पहली बार महत्त्व पता चला उनकी व्याकरण की किताब से. आज तक वह चलित हिंदी व्याकरण मेरे लिए अंतिम प्रमाण है. उनके वैयाकरण होने से मुझे गर्व महसूस हुआ था, लेकिन उनका कवि रूप फिर भी पर्दे में था. इसके पीछे पापा की धारणाओं का भी हाथ था जो उन्हें गीतकार भर मानकर चलते थे. हालाँकि वे अपने मास्टर साहब (पापा शुरू में नानाजी से ही अपनी कविताओं को दुरुस्त करवाते थे. इसलिए वे उनके मास्टर साहब नहीं थे. नानाजी पेशे से मास्टर थे. पहले गया ज़िला स्कूल में और फिर पटना कॉलेजिएट में. अंत अंत तक पापा नानाजी को मास्टर साहब ही कहते रहे, माँ की तरह बाबूजी उन्होंने कभी नहीं कहा !) के ज्ञान की शुरू से कायल थे. आखिरकार पापा की प्रगतिशीलता ने एक दिन नानाजी के महत्त्व को मान लिया. उन्होंने उत्तर छायावाद काल के कवियों की पंक्ति में नानाजी को ससम्मान जगह दी. नानाजी का कवि रूप पापा के माध्यम से मेरे सामने आया, यह कहना गलत न होगा. हालाँकि मेरी माँ और मौसियाँ अपने जन्म के समय से इसे जानती और मानती थीं.

माँ और सबसे छोटी बेबी मौसी के साथ मैं भी 'बंधु ज़रूरी है मुझको घर लौटना / एक मुझे भी ले लो अपनी नाव पर' चाव से गाती थी (बेसुरी होने और गीत की गहराई न समझने के बावजूद). नानाजी के मुँह से भी मैंने यह सुना था और तब लगा था कि सचमुच जो लोग उनके स्वर की मिठास की तारीफ़ करते थे वे अतिशयोक्ति अलंकार का सहारा नहीं लेते थे, बल्कि अभिधा में अपनी बात कहते थे. वैसे अभिधा में जीवन में कितना कम होता है ? 'बंधु ज़रूरी है मुझको घर लौटना' कहनेवाले नानाजी एक दिन घर नहीं लौटे. 19 अगस्त, 1991 की रात रवीन्द्र भवन में कवि सम्मेलन था. वहाँ कविता पाठ करके मिलर हाई स्कूल के पास कविता मौसी के घर गए. खाना खाकर बुद्ध कॉलोनी में अपने घर लौटे. उनकी सवारी सायकिल हुआ करती थी (जिसे मनपसंद कहना उचित नहीं होगा और केवल मजबूरी कहना भी सही नहीं होगा). जैसे ही पहुँचे याद आया कि कविता की डायरी कहीं छूट गई है. बैचैनी में सायकिल उठाई और डायरी लाने निकल पड़े. बरसात की रात थी. घर से 500 मीटर भी न गए होंगे कि बिजली का नंगा तार कंधे पर आ गिरा. उनकी रामलीला समाप्त हो गई ! कविता की वजह से वे जीवन की मुश्किलों को पार करते चले गए थे, कविता उनका संबल था, नानी की मौत, दिनेश मौसा की मौत और मामू की मौत को झेलने में उनका साथ कविता ने दिया था और कविता ढूँढ़ते हुए ही वे चले गए. मैं अस्पताल में लेटे नानाजी को याद नहीं करना चाहती हूँ. मैं उनकी सायकिल की घंटी की आवाज़ याद करना चाहती हूँ जिसके साथ उनके बकलसवाले चमड़े के बैग से खाजा निकलने की आस जुड़ी है. सिलाव का ताज़ा ख़स्ता कुड़कुड़वाला खाजा !

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