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सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

"करिहा छमा छठी मैया भूल चूक गलती हमार ..." (Chhath video : Gender analysis by Purwa Bharadwaj)

https://www.youtube.com/watch?v=DG8F-csoRAQ


'पहिले पहिल छठी मैया' यह पिछले साल का वीडियो है, मगर मैंने अभी पिछले महीने देखा था. उसके बाद कई बार नज़र से गुज़रा.  इधर तो सोशल मीडिया में यह तेज़ी से घूमने लगा है. छठ जो नज़दीक है !

बिहार के महत्त्वपूर्ण त्योहार छठ पर केन्द्रित इस वीडियो से गैर-बिहारी भी अपने को जोड़ सकते हैं. अपने अपने प्रदेश की संस्कृति से दूर जाने की कसक सबको है. इसमें अतीत की खूबसूरत चीज़ों के छूट जाने का दर्द ऐसे पिरोया हुआ है कि उसका साधारणीकरण होने में देर नहीं लगती है.

यह कहना झूठ होगा कि इसे देखकर मैं भावुक नहीं हुई. माँ के छठ करने की पावन याद जग गई और तकलीफ हुई इसके छूट जाने पर. लेकिन जेंडर आधारित भूमिका, पितृसत्ता का जाल, पितृत्ववाद (Paternalism)की चिकनी-चुपड़ी गलियाँ अब एकदम अनजानी नहीं हैं. थोड़ी थोड़ी पहचान होने लगी है इनसे. इसलिए वीडियो का एक एक शॉट समझ में आने लगा. कितनी बारीकी से सारा सरो सामान जुटाया गया है.

सोमवार, 28 अगस्त 2017

दिन कैसा गुज़रा (By Purwa Bharadwaj)

आज का दिन कैसा गुज़रा, यह क्या हमलोग हमेशा सोचते हैं ? नहीं। जब दिन अच्छा बीतता है तब और जब बुरा बीतता है तब शायद अधिक इसका ख़याल आता है। जब पूरे दिन आपा-धापी रहती है तब और जब निठल्ले बैठे रहो तब भी यह दिमाग में चक्कर काटता है।

हाँ, बीच बीच में बेटी से या अपूर्व से बाहर से आने पर यह सवाल पूछ लेती हूँ। कभी तार जोड़ने के लिए, कभी बात छेड़ने के लिए, कभी जानने के लिए, कभी अपनी कुढ़न को सांकेतिक रूप से पहुँचाने के लिए, कभी ध्यान भटकाने के लिए तो कभी यों ही। मुझसे भी जब तब यह सवाल पूछा जाता है. अमूमन रुटीन की तरह जवाब दे देती हूँ, लेकिन कभी कभी यह पिटारा खोल देता है.

परसों की बात है. माँ ने पूछा कि आज क्या क्या किया। पता नहीं क्यों मैं जवाब नहीं दे पाई. मैंने टाल दिया. बात इधर-उधर करते हुए मैं सोचती जा रही थी कि आखिर कभी कभी सीधे से सवाल का सीधा जवाब देना क्यों मुश्किल हो जाता है. शायद बहुत बात होती है तो झटपट उसका सारांश बताना कठिन होता है. या इतनी मामूली बात होती है कि उल्लेखनीय नहीं लगती है. या नयापन नहीं होता है तो दोहराने की ऊब से बचने का जी करता है. अगले की दिलचस्पी होगी या नहीं, यह ख़याल भी कभी कभी रोक देता है. या बात करनेवाला माध्यम - फोन, Chat, वीडियो कॉल वगैरह बाधक बनता है. रूबरू होने पर सवाल करनेवाले और जवाब देनेवाले के रिश्ते का स्वरूप निर्णायक भूमिका निभा सकता है. दिलो दिमाग का तापमान भी मायने रखता है. जगह और समय तो है ही महत्त्वपूर्ण. कहना गलत न होगा कि अनगिनत variables होते हैं.

बात यह भी है कि किस काम को हम काम गिनते हैं और किसको करने से हमें संतोष होता है. अनचाहा या रुटीन वाला काम करने पर भी उसकी गिनती हम खुद नहीं करते. बेमन से अपना मनचाहा काम भी मशीनी हो जाता है. इसलिए हमें उसकी working memory भी नहीं रहती. उसमें किस किस तरह की प्रक्रियाएँ हुईं, शारीरिक-मानसिक ऊर्जा को कहाँ कहाँ हमने खर्च किया, यह याद नहीं रहता. क्यों ?

पिछले दिनों बच्चों के साथ कला के माध्यम से काम करनेवाले लोगों के प्रशिक्षण की तैयारी करने के क्रम में मैं Multitasking और Creativity के बारे में पढ़ रही थी. उसका एक शिरा मनोविज्ञान की गलियों में चला गया था. भारी भरकम पारिभाषिक पदों की गिरह खोलने की इच्छा बहुत हो रही थी, लेकिन मैंने अपने को थाम लिया. Cognitive fragmentation, Cognitive load, Cognitive resources को समझना बहुत ज़रूरी है, मगर वह डगर कहीं और जाती है. हाँ, अच्छा लगा कि इंटरमीडिएट में पढ़े हुए मनोविज्ञान की बुनियादी बातें स्मृति में कहीं दबी पड़ी थीं. आगे जाकर जेंडर के मुद्दे के तहत भावना और विवेक के द्वंद्व को समझने में इस मनोविज्ञान ने थोड़ी मदद की थी. उसके सहारे मैं दिन कैसा गुज़रा, इस सवाल की परतों को भी देखना चाह रही थी.

माँ का फोन रखते हुए मुझे अपने पर खीझ हुई कि कम से कम आज मेरे पास बताने को कितना कुछ था. पिछले कई महीनों से मैं गाँधी पर प्रस्तुति के लिए जिस स्क्रिप्ट पर काम कर रही थी उसने एक शक्ल आज ही ली थी. वंदना राग का अनुवाद आ गया था और उसकी लयात्मकता देखकर मैं खुश थी कि स्क्रिप्ट का एक अंश जम गया. बाकी रचनाओं की सॉफ्ट कॉपी रिज़वाना के सौजन्य से मिल चुकी थी और उन सबको जोड़ने के काम में मैं जुटी हुई थी, लेकिन खुद संतुष्ट नहीं हो पा रही थी.कई बार सीवन उधेड़ी, जोड़ा-घटाया, पर गाड़ी पटरी पर आई आज ही.

इस दौरान कुछ अंशों का अनुवाद करना मेरे जिम्मे था. भाषा के खेल में आनंद आता है मुझे और अनुवाद की चुनौतियों से अच्छी तरह वाकिफ हूँ. इसलिए अनुवाद शुरू करने के पहले चुनिंदा विदेशी महिलाओं की पृष्ठभूमि समझना ज़रूरी था. उस चक्कर में हुआ यह कि उनकीअंग्रेज़ी से जूझना छोड़कर मैं डेनमार्क, नॉर्वे, फ़िनलैंड से लेकर इंग्लैंड-अमेरिका में उनके कार्यक्षेत्रों का दौरा करने लगी थी. (गूगल के नक़्शे की मदद से)

इतिहास पलटने से मुझे यह समझ में आया कि फिनलैंड के स्कूलों में होम वर्क, परीक्षा जैसी अनिवार्य मानी जानेवाली चीज़ों को क्यों हटा दिया जाना संभव हुआ है. डेनमार्क के Nikolaj Frederik Severin Grundtvig या  N. F. S. Grundtvig  (17831872) जैसे क्रांतिकारी विचारक ने आसपास के देशों को ही नहीं, सुदूर देशों को भी प्रभावित किया था. राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक तरक्की की सीढ़ी चढ़ने में  Grundtvig के विचारों का बड़ा योगदान है. उसी में मुझे आज ऐनी मेरी पीटरसन द्वारा पंडिता रमाबाई के स्कूल पर टिप्पणी मिल गई थी. साथ ही, शांति निकेतन, गाँधी आश्रम सहित अनेक संस्थानों की शिक्षा पद्धतियों की संक्षिप्त समीक्षा थी. नेशनल क्रिश्चन गर्ल्स स्कूल खोलने की उनकी इच्छा से हाल-फिलहाल की धर्मांतरण की बहस याद आ गई थी.

अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस अखबार का पूरा पन्ना केरल की अखिला से हदिया की यात्रा पर देखा तो पंडिता रमाबाई के धर्मांतरण पर होनेवाले विवाद का पन्ना आँखों के आगे आ गया. सवा सौ साल पहले भी वह राष्ट्रीय मुद्दा बना था और खूब अखबारबाजी हुई थी और आज भी वही आलम है. एक लड़की, एक औरत किसी से असंतुष्ट होकर दूसरे का वरण कर सकती है, यह अकल्पनीय लगता है समाज को. उसमें भी वह व्यक्ति नहीं, धर्म को चुनने का मसला हो तो मामला और संगीन हो जाता है. मुझे मन किया कि अगले दिन ही सही माँ को फोन करूँ और उसको बताऊँ कि कल और आज मैंने कैसे गुज़ारा. वह मेरे मन को मेरे 'हैलो' कहने के अंदाज़ भर से पकड़ लेगी.

माँ को प्रिंगल की कारस्तानी भी बतानी थी जो नहीं बताई. मैडम को रोटी दी थी तो मुँह फेरकर चली गई थीं. थोड़ी देर बाद रसोई के स्लैब पर हाथ रखकर उचक रही थीं कि किसी कोने से चिकेन-मटन निकल आए. घर में था ही नहीं तो उनको मिलता कैसे. मैंने सोच रखा था कि शाम को पक्का मँगा दूँगी. फिलहाल चावल-अंडा और दही से काम चलाऊँ, यह योजना थी जो कि अमल में लाई गई. प्रिंगल ने करम फरमाया और चटपट चावल-अंडा और दही खा गई, लेकिन नीचे में रोटी के टुकड़े पड़े रह गए. फुसलाने का कोई असर न हुआ. दौड़ा-दौड़ी ने भी उसका मूड फ्रेश नहीं किया. दरवाज़े पर उदासीन सी वह लेट गई.

बेटी बाहर से आईं तो प्रिंगल मैडम की हरकत देखते बनती थी. ऐसे नाच रही थीं मानो बस वो हैं और उनकी प्यारी हैं. मेरी मौजूदगी का किसी को अहसास ही नहीं था. पास खड़ी होकर मैं इस बेमुरव्वती को देखकर मुस्कुरा रही थी. सोचा कि अपूर्व को सारा किस्सा बताऊँगी. इसमें दिमाग नहीं खपाया कि क्या क्या और कितना बताऊँगी. दिन गुज़रा, यह महत्त्वपूर्ण था. अच्छा-बुरा, उत्पादक-अनुत्पादक का लेबल लगाने के लिए हम क्यों तड़पते रहते हैं. Redundancy का भी अपना महत्त्व है. वह ज़रूरी है. जैसे भाषा में वैसे जीवन में, अपनी दिनचर्या में.



शनिवार, 19 अगस्त 2017

इतना तो बल दो (Itna to bal do by Trilochan)


यदि मैं तुम्हें बुलाऊँ तो तुम भले न आओ
                  मेरे पास, परन्तु मुझे इतना तो बल दो
                  समझ सकूँ यह, कहीं अकेले दो ही पल को
मुझको जब-तब लख लेती हो I नीरव गाओ


प्राणों के वे गीत जिन्हें मैं दुहराता हूँ I
                 सन्ध्या के गम्भीर क्षणों में शुक्र अकेला
                 बुझती लाली पर हँसता है I निशि का मेला
इसकी किरणों में छाया-कम्पित पाता हूँ


एकाकीपन हो तो जैसा इस तारे का
                 पाया जाता है वैसा हो I बास अनोखी
                 किसी फूल से उठती है, मादकता चोखी
भर जाती है, नीरव डण्ठल बेचारे का
                 पता किसे है, नामहीन किस जगह पड़ा है ?
                 आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है I


कवि - त्रिलोचन (20 अगस्त, 1917 - 9 दिसंबर2007) 

संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
संपादन - केदारनाथ सिंह 
प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, प्रथम संस्करण - 1985

रविवार, 13 अगस्त 2017

अर्थी (By Purwa Bharadwaj)

कल दिन की बात है. एक कागज़ खोजने के चक्कर में मैंने सारी फ़ाइल खँगाल डाली. फिर बारी आई सिरहाने और पैताने रखे कागज़ात की. [परंपरा का निर्वाह करते हुए मैं भी अपने बिस्तर के नीचे कागज़-पत्तर रखती हूँ. आलमारी में सहेजने से ज़्यादा आसान है यह तरीका. तोशक उठाओ और फट से डाल दो.]  इक्का दुक्का कागज़ नहीं, पूरा ज़खीरा है वहाँ. उसमें बीमा की रसीद, पेट्रोल की पर्ची, एक्वा गार्ड का AMC, लैपटॉप की वारंटी, चेकबुक, पुरानी तस्वीर, बीसियों विजिटिंग कार्ड आदि से लेकर सफलसे खरीदी गई सब्ज़ियों का बिल तक था जिसे मैंने फुर्सत में मिलान करने और सब्ज़ियों का ताज़ा भाव जानने के लिहाज़ से रख छोड़ा था. एक रूलदार पन्ने पर एक सूची भी मिली. मैंने पढ़ना शुरू किया ताकि फालतू हो तो फेंक दूँ. पहला शब्द जो था उस पर मैं ठिठक गई. जानते हैं वह शब्द क्या था ? अर्थी. सही हिज्जे और साफ़ अक्षर. सामने दाम लिखा था. वह सूची 20 रुपए के गंगाजल और 30 रुपए की फुलमालापर ख़त्म होती थी.

मंगलवार, 8 अगस्त 2017

हल्कापन (By Purwa Bharadwaj)


हल्कापन क्या बुरी चीज़ है ?

नहीं तो !

यह इस पर निर्भर करता है कि हम किस चीज़ के हल्केपन की बात कर रहे हैं.

हल्कापन भारहीनता का द्योतक है. इस अर्थ में मुझे याद है 'नैषधीयचरितम्' (12वीं सदी के कवि श्रीहर्ष की कृति) का वह श्लोक जिसमें दमयंती के सौंदर्य की पराकाष्ठा का वर्णन था. उसका भावार्थ था कि विधाता ने जब दमयंती के रूप को तौलना चाहा था तो वह इतना भारी था कि धरती पर आ गया और तुला के दूसरे पलड़े पर बटखरे के रूप में रखे गए तारे इतने हल्के थे कि ऊपर आसमान में टंग गए. यह हल्कापन तो अनमोल है.

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

सिटकिनी (By Purwa Bharadwaj)

पिछले काफी दिनों से मेरे कई कमरों की सिटकिनी खराब थी. हर बार मुझे झल्लाहट से भर देनेवाली यह सिटकिनी कितनी मामूली है, लेकिन कितनी अहम !

मामूली इसलिए कि दिन भर में कई दफा इस्तेमाल होने के बावजूद मैं क्या, ज़्यादातर लोग इसे याद नहीं रखते हैं. महीनों बीत जाने के बाद भी उसके मरम्मत का ध्यान ही नहीं रहता है. जब तक कि वह सचमुच पीड़ा देने न लगे. कहने का मतलब कि भौतिक अर्थ में जब सिटकिनी से चोट लगने लगे या हाथ छिल जाए या किवाड़ बंद न हो पाए तब उस पीड़ा का बोध हमें तवज्जो देने के लिए मजबूर करता है.

सिटकिनी जानते हैं न आप ? वही ...जिसे लोग सिटकनी, चटखनी, चिटखनी, चिटखिनी, चिटकनी या चिटकिनी कहते हैं. दरवाज़ों को प्रायः अन्दर से बंद करने के लिए एक कुंडी समझिए. प्रायः लोहे, पीतल जैसी धातु से यह बनती है. वैसे इस प्लास्टिक युग में प्लास्टिक की सिटकिनी भी खूब मिलती है. आप ऐश्वर्यशाली हों तो अपने घर के दरवाज़ों में चाँदी-सोने की सिटकिनी भी लगा सकते हैं. और कुछ नहीं तो भगवान के मंदिर के पट की सिटकिनी चाँदी-सोने की बनवा ही लीजिए. आखिर सिटकिनी किस चीज़ की बनी होगी यह लोगों की औकात के हिसाब से होता है. भाव के हिसाब से भी ! भक्ति मापने के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सहित अनेकानेक पूजा स्थलों की सिटकिनियों का सर्वेक्षण किया जा सकता है.

खैर, हम मध्यमवर्गीय लोग तो अपनी लोहे की सिटकिनी से ही जूझते रहते हैं. जिनमें अक्सर ज़ंग लग जाता है. हवा की नमी से. अटकते-झटकते वह काम करती रहती है और एक दिन पैर रोप देती है. कहती है, जा, अब न चलूँगी. उससे शुरू होता है खीझना, कोसना और बड़बड़ाना. उस नन्हीं सी जान को हम बख्शते नहीं. भई, हम आप बेहिस्स हो सकते हैं, अपने चारों तरफ की हवा से निरपेक्ष रह सकते हैं, लेकिन सिटकिनी बेचारी को हवा का संग ज़ंग दे गया तो वह क्या करे ! अब आप इसे राजनीति मत कहिएगा.

शब्दकोश ने बतलाया कि चटकना या चटखना अरबी भाषा की क्रिया है. इसके मूल में हल्की सी 'चट' की आवाज़ का होना है. कलियों के या शीशे के चटकने के संदर्भ में इसका इस्तेमाल आम है. वही आवाज़ सिटकिनी के दिल में है. जब आवाज़ के साथ सिटकिनी झट से खुल जाती है तो राहत मिलती है. हमें वह आवाज़ चाहिए. मगर न ज़रूरत से ज़्यादा और न ज़रूरत से बहुत कम. अधिक आवाज़ हो तो हमारे परिष्कृत कानों को चुभती है. हम  ऐसी सिटकिनी ढूँढने जाते हैं जो शोर न करे.बाज़ार इसका भरपूर फायदा उठाता है. बेआवाज़ कहकर पीतल की भारी और मँहगी सिटकिनी बिकती है और हम शौक से कम से कम अपने नए घर में उसे ज़रूर लगवाना चाहते हैं. मगर जो आवाज़ पर टिकी हो वो भला एकदम बेआवाज़ कैसे होगी ! कायांतरण क्या इस हद तक होता है !

फैशन की वबा छोड़ दें तो अमूमन सिटकिनी लंबी होती है. कहना चाहिए नीचे से ऊपर लंबाई में लगाई जाती है. उसकी दिशा तय होती है. मगर हम ठहरे इंसान जिसे हर चीज़ की दिशा को मोड़ने और बदलने का शौक है. हम कभी कभी उस सिटकिनी को लिटा देते हैं, कभी आड़ा-तिरछा कर देते हैं तो कभी अंदर के बजाय बाहर से लगा देते हैं. वह है बेजान, इसलिए इंसान को झटका भले दे, हल्की चोट लगा दे, पर मुख़ालफ़त नहीं करती. उसके आकार-प्रकार में प्रयोग किया जाता है तब भी सिटकिनी चुपचाप अपना काम करती है. आप सबने गौर किया होगा कि हम सिटकिनी की चौड़ाई कम, लंबाई घटाते-बढ़ाते रहते हैं. ख़ूबसूरती के नाम पर और ज़रूरत के नाम पर. हाथ भर लंबी सिटकिनी देखने में भव्य मालूम होती है और छुटकू सी सिटकिनी प्यारी लगती है.

इसकी अहमियत की गवाही किस किस से लूँ ? और लूँ भी क्यों ? जो छोटा है, नज़र में रहकर भी नज़र नहीं आता, उसका वजूद क्या दूसरों पर निर्भर है ! नहीं, हरगिज़ नहीं. हर वो शै जो है वह अपना अस्तित्व रखती है. हम आप उसका इस्तेमाल करें और भूल जाएँ, यह हमारी फ़ितरत बताता है, उसकी नहीं. सिटकिनी है बस...ख़ामोश, मगर सक्रिय.

सिटकिनी रुकावट है, इससे लोग वाकिफ़ हैं. और रुकावट हमें चाहिए - अपने लिए, दूसरों के लिए कम.यह हमें निजता देता है. शर्मो हया की आड़ देता है. एक कमरे से ही नहीं, कभी कभी एक पूरी दुनिया से हमें परे ले जाता है. इसलिए जब बेबात और विरोध में किसी दरवाज़े या खिड़की की सिटकिनी मुँह पर बंद कर दी जाती है तो हमें सहसा महसूस होता है कि कोई है. सिटकिनी सत्ता को दिखा देती है, नियंत्रण की चाभी बन जाती है.

यानी सिटकिनी लोगों की मौजूदगी का अहसास कराती है. उसे खोलने और बंद करनेवाला कोई फ़र्द होता है. हाड़-मांस से बना. मलकूती मख़लूक नहीं, ज़मीनी इंसान. यह अलग बात है कि करतब करना सिखा देने पर जानवर भी सिटकिनी चला ले, मगर है वह इंसानी मतलब की चीज़.

सबसे बड़ी बात यह कि सिटकिनी हिफ़ाज़त करती है. बेपर्दगी से बचाती है. उसकी तीव्रता तय होती है इससे कि वह किसके घर की है या किस दरवाज़े की है. गुसलखाने की सिटकिनी हुई तो उसका वज़न बढ़ जाता है.   गुसलखाने के अंदर हसीना हुई तो उस सिटकिनी पर इज़्ज़त की रक्षा का दारोमदार रहता है. केवल उस जान की रक्षा नहीं, पूरे कुनबे की प्रतिष्ठा की रक्षा का भार रहता है. आज ही दफ़्तर का बाथरूम चर्चा में था. उसकी सिटकिनी घायल कर रही थी लोगों को और उसके अलावा दरवाज़ा जाम कर दे रही थी. फ़ौरी उपाय निकला कि सिटकिनी को फिलहाल काम में न लाया जाए और थोड़ा बरसात के मौसम में उसके नखरे सह लिया जाए. नतीजा दफ़्तर के कई लोग पहरेदारी कर रहे थे. एक सिटकिनी ने लोगों को खुद बखुद सिटकिनी में बदल दिया था. सतर्क, चुस्त और ऐलान करनेवाला.





बुधवार, 5 जुलाई 2017

हिंदी में काम (By Purwa Bharadwaj)

हिंदी में काम करती हूँ तो अक्सर अंग्रेज़ी से भी टकराना ही पड़ता है. लैपटॉप पर काम करने और 24 घंटे उपलब्ध इंटरनेट की सुविधा ने गूगल से भी ख़ासा परिचय करा दिया है. फिर भी गूगल पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहने की सतर्कता बरतती हूँ. हाँ, राह दिखाने के लिए गूगल की उपयोगिता से इनकार नहीं है.

अभी मैंने आत्महत्या गूगल पर टाइप किया तो सबसे पहले आया आत्महत्या करने के आसान तरीके, आत्महत्या के सरल उपाय, दर्दरहित आत्महत्या आदि. अलबत्ता उनके लिंक खोलो तो दार्शनिक तरीके से जीवन की सकारात्मकता पर उपदेश और निर्देश मिला. वहीं Sucide टाइप किया तो सीधा एक नंबर दिखा. एक हेल्पलाइन नंबर. मुंबई के आसरा हेल्पलाइन का जो अकेलेपन, उदासी और आत्महत्या का ख़याल आने जैसे संकट की घड़ी में व्यक्ति से बात करने को हर वक्त तैयार है. वह कितना कारगर है, यह अलग मसला है. या ऐसी मनोदशा में कोई मदद माँगने के लिए इंटरनेट का सहारा लेगा या नहीं और यदि हाँ तो वह किस तबके का, किस नगर-ग्राम का होगा, इसका विवेचन मुझे नहीं करना है. ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर किसी तरह की अटकलबाज़ी मुझे नहीं करनी है. मेरा ध्यान गया कि भाषा की खाई कितनी बड़ी है.

रविवार, 2 जुलाई 2017

पहचानना (Pehchanana by Purwa Bharadwaj)

कितना साधारण सा शब्द है पहचानना। बहुप्रयुक्त भी। उठते-बैठते यह हमारी ज़बान से ऐसे निकलता है जैसे अनायास हो जानेवाली क्रिया हो। लेकिन ऐसा है क्या ?

नहीं है। लोग यह जानते हैं कि पहचानना मुश्किल होता है। यह एक ऐसी क्रिया है जिसमें अक्सर लोग विफल होते हैं, जिसके लिए उन्हें लगभग पूरा जीवन खपा देना पड़ता है। यह आता है अभ्यास से या कहना चाहिए विफलता से सबक सीखने के बाद। यहाँ मुझे मीडिया में लंबे समय से काम कर रहे अपने एक दोस्त राकेश शुक्ला की बात याद आ गई। मेरे दोस्त ने बड़ी अच्छी बात कही थी कि अच्छा निर्णय आता है अनुभव से और अनुभव आता है बुरे निर्णय लेने के कारण हासिल विफलता से। 

रविवार, 18 जून 2017

फालतूपन (Redundancy by Purwa Bharadwaj)


रोजाना लगभग 50 किलोमीटर का सफ़र तय करते समय मेरा पसंदीदा काम है अपने दोस्तों को sms करना और उसके जरिए तार जोड़े रखना. चूँकि राह चलते शोर काफी रहता है, इसलिए फोन पर प्रायः बात नहीं करती हूँ. sms को बेहतर पाती हूँ कि अपनी कह दो और दूसरे को तत्काल परेशान भी न होना पड़े. हालाँकि उसमें भी तुरत जवाब पाने की उम्मीद रहती है और उत्साह बढ़ जाता है जब लगातार कुछ देर तक आदान-प्रदान चलता रहता है.

बुधवार, 31 मई 2017

आपबीती : JNU जैसी छवि और दिल्ली पुलिस ('JNU' type image and Delhi Police by Purwa Bharadwaj and Rizwana Fatima)



तारीख 26 मई, 2017. समय सुबह 11.30 बजे. जगह नई दिल्ली का केन्द्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन. यानी देश की राजधानी के राजपथ के करीब का इलाका. मामला नागरिक गरिमा का हनन, अपमान और मानसिक प्रताड़ना का. मुज़रिम दिल्ली पुलिस.

हम तीन लोगों – रिज़वाना फ़ातिमा, वंदना राग और पूर्वा भारद्वाज को गाँधी पर शोध के सिलसिले में एक संस्थान में जाना था. हमारा छोटा सा समूह है रसचक्र. हमने उसके माध्यम से अलग अलग किस्म की रचनाओं की प्रस्तुति शुरू की है. रसचक्र की अगली प्रस्तुति गाँधी पर करने की योजना है. उसी सिलसिले में आपस में तय हुआ था कि आधी दूरी मेट्रो से नापेंगे और बाकी गाड़ी से. दिल्ली विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर हम दो लोग - रिज़वाना फ़ातिमा और पूर्वा भारद्वाज मिले.

शनिवार, 13 मई 2017

माँ के नाम (Mother's day by Purwa Bharadwaj)

आज सब माँ को याद कर रहे हैं. Ritual कहें या फैशन या भावना का सार्वजनिक प्रकटीकरण या भीड़ में शामिल होना कहें या प्रदर्शन - जो हो लेकिन माँ के साथ की तस्वीर खोज रही थी. मैंने महसूस किया कि बहुत कम तस्वीरें हैं. क्यों ?


पहले चलन नहीं था और मेरे बचपन में फोकस बच्चों की फोटो खिंचवाने या 'पेयर' फोटो खिंचवाने पर था. कभी कभी पूरे परिवार की फोटो शादी-ब्याह, होली-दिवाली या ईद-बकरीद, पिकनिक, मेला-ठेला, पूजा, तीर्थाटन, देश-विदेश भ्रमण, (हमारे संदर्भ में) सभा-सेमिनार वगैरह के मौके की मिल जाती थी. साधन संपन्न होना इस शौक और इच्छा से जुड़ा हुआ था और अभी भी है. बाद के दिनों में मैंने याद करके माँ के साथ कुछ तस्वीरें खिंचवाई हैं. शादी के पहले की तस्वीरें इक्का-दुक्का ही हैं. उनमें से एक यह कॉलेज के दिनों की है. साथ तो साथ है और उसकी खुशी छलकनी चाहिए !

रविवार, 23 अप्रैल 2017

पंडिता रमाबाई सरस्वती 23.4.1858-5.4.1922 ( Pandita Ramabai Saraswati By Purwa Bharadwaj)


रमाबाई की जीवन-यात्रा विलक्षण रही है. इसका बीज तभी पड़ गया था जब महाराष्ट्र के सबसे ऊँचे माने जानेवाले कोंकणस्थ चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे उनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे ने समाज की प्रताड़ना की परवाह नहीं करके अपनी पत्नी लक्ष्मीबाई को संस्कृत पढ़ाना शुरू किया था. उनके इस कदम के खिलाफ उडिपी में धर्मसभा हुई थी. उसमें लगभग चार सौ विद्वानों की मौजूदगी में उन्होंने साबित कर दिया था कि स्त्रियों को संस्कृत की शिक्षा देना धर्मविरुद्ध नहीं है, लोकविरुद्ध भले हो. फिर उन दोनों ने मिलकर गंगामूल प्रदेश में एक संस्कृत केंद्र स्थापित किया - कोलाहल से दूर पश्चिमी घाट की चोटी पर स्थित जंगल में. वहीं रमाबाई का जन्म हुआ था. उनकी एक बड़ी बहन थी कृष्णाबाई और बड़ा भाई था श्रीनिवास.

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

कड़वा मन (By Purwa Bharadwaj)

मन कड़वा होता है। खट्टा होता है। यह सच्चाई है। (यकीनन मीठा भी होता है, लेकिन अभी उसका भाव पटल पर नहीं है।)  कितना भी यह समझाओ अपने आप को कि यह क्षणिक है, आवेग है, आवेश है, समय के साथ तकलीफ चली जाएगी, तो भी मन में फाँस रह जाती है। अक्सर करीबी या परिचित के संदर्भ में यह अटक रह जाती है।

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

सैर और दस्तरख़्वान (By Purwa Bharadwaj)

इन दिनों सुबह की सैर को नियमित करने का भरपूर प्रयास कर रही हूँ। पहली वजह अपना स्वास्थ्य ठीक रखने का दबाव है और दूसरी वजह है प्रिंगल रानी के लिए हवाखोरी की ज़रूरत। तीसरी वजह भी है और वह है अपने साथ होने का अहसास।

यह सिलसिला कितने दिन तक चलेगा उसे लेकर चिंता है, मगर ना से हाँ सही मानकर खुश हूँ। आज काफी देर तक मैं कल रात के खाने के बारे में सोचती रही। कल इरादा किया था कि फ्रिज को पूरा खाली कर देना है। कोने-कोने में, छोटे-बड़े डिब्बे में जो कुछ पड़ा है, उसे निपटा देना है। जिम्मेदारी अकेले मेरी नहीं थी, पूरा घर शामिल था। अपूर्व बिना ना-नुकुर के कुछ भी खा लेते हैं। बासी को लेकर नखरा मेरा भले हो, घर में और किसी का नहीं है। बेटी तो खाती ही रहती है। तीन दिन पहले का पिज़्ज़ा और चार दिन पुरानी कढ़ी वह चाव से खा लेती है। उसके लिए गर्म केवल भात होना चाहिए।

गुरुवार, 2 मार्च 2017

बादशाह अकबर की कविता (Mughal emperor Akbar's Poem)

कान्हाते अब घर झगरो पसारो 
कैसे होय निरवारो। 
यह सब घेरो करत है तेरो रस 
अनरस कौन मंत्र पढ़ डारो।।
मुरली बजाय कीनी सब वोरि 
लाज दई तज अपने अपने में बिसारो। 
तानसेन के प्रभु कहत तुमहिं सों तुम जितो हम हारो।।

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

गर्दन एक कुएँ जैसी (Gardan ek kuyein jaisi by Prakriti Kargeti)

गर्दन एक कुएँ जैसी है 
कोई न कोई
रिश्ते की रस्सी से 
खाली बाल्टी बाँध
फेंक देता है गहरा 
फाँस पड़ती है 
साँस रुकती है,
पर कुआँ
बाल्टी भरने नहीं देता 
अपना ही पानी निगल जाता है.