आने दो
जितनी हवा
एक थोड़ी-सी खुली खिड़की से आ सकती है
उतनी हवा।
आने दो
जितना पानी
एक नन्ही सी रमझिरिया से रिस सकता है
उतना पानी।
आने दो
उतनी आग
एक सिकुड़ते हृदय की कामाग्नि से छिटक सकती है
उतनी आग।
आने दो
कविताओं में ख़र्च न हो पाएँ
उतने शब्द।
इतना सब अगर आ गया
तो दुनिया भरपूर रहेगी
और कविता भी,
उतनी दुनिया, उतनी कविता !
- 26.5.2012
कवि - अशोक वाजपेयी
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013
-
जितनी हवा
एक थोड़ी-सी खुली खिड़की से आ सकती है
उतनी हवा।
आने दो
जितना पानी
एक नन्ही सी रमझिरिया से रिस सकता है
उतना पानी।
आने दो
उतनी आग
एक सिकुड़ते हृदय की कामाग्नि से छिटक सकती है
उतनी आग।
आने दो
कविताओं में ख़र्च न हो पाएँ
उतने शब्द।
इतना सब अगर आ गया
तो दुनिया भरपूर रहेगी
और कविता भी,
उतनी दुनिया, उतनी कविता !
- 26.5.2012
कवि - अशोक वाजपेयी
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013
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