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गुरुवार, 4 जुलाई 2013

महानता का पक्ष (Mahanata ka paksh by Apoorvanand)


प्रत्येक समाज में  ऐसा समय आता है जब वह महानता से घबराने लगता है। क्षुद्रता की प्रतिष्ठा और महानता की अवज्ञा या अवहेलना की जाने लगती है।  महान या उदात्त उसे अपनी पहुँच के बाहर लगने लगता है और वह उसके विरूद्ध हमलावर हो जाता है।  यह भी कहा जाने लगता है कि महानता का विचार मात्र मिथ्या है। तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि महानता या उदात्तता साधारणता की विरोधी अवस्था या अवधारणा है और वर्चस्वशाली वर्गों के अपने आधिपत्य को बनाए रखने के सांस्कृतिक षड्यंत्र का एक अंग है। सारी प्रतिमाओं को ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए और साधारण को प्रतिष्ठित कर दिया जाना चाहिए। 

महानता के बारे में यह विचार है कि उसकी परीक्षा काल करता है. अपने समय में छाए रहना महानता को सिद्ध नहीं करता। असली इम्तहान, किसी विचार या व्यक्ति का,उसके अपने भौतिक समय के बीत जाने के बाद ही हो पाता है। उसके साथ ही उसकी दूसरी कसौटी यह है कि  वह प्रकटतः जिस समुदाय, धर्म या वर्ग में जन्म लेता है, सिर्फ उसी की सीमा में बंध कर नहीं रह जाता। उसकी अपील न सिर्फ कालातीत होती है बल्कि उसमें एक प्रकार की सार्वभौमिकता भी होती है. वह स्वयं को जन्म देने वाले सांस्कृतिक सन्दर्भों से स्वतंत्र हो जाता है

महानता या उदात्तता, जिनको यहाँ लगभग समानार्थी माना जा रहा है, रोजमर्रापन की भर्त्सना नहीं करती. लेकिन वह उसी को मनुष्यता को परिभाषित करने का अधिकार देने से इनकार करती है. चाहें तो कह सकते हैं कि वह रोजमर्रापन के साथ एक तनाव की स्थिति में होती है. वह अपनी प्रेरणा उसी से ग्रहण कर सकती है लेकिन उसके परे जाने को उद्यत रहती है

महानता की एक परीक्षा यह  भी है कि उसकी प्रतिष्ठा या रक्षा सत्ता के संसाधनों के सहारे नहीं की जाती। वह किसी विज्ञापन की मुहताज भी नहीं होती। अदृश्य रह कर भी वह समाज के अवचेतन में कहीं सक्रिय बनी रहती है। ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है वह प्रासंगिक नहीं रह गई और फिर कभी नहीं लौटेगी क्योंकि उसे संरक्षण देने वाला कोई नहीं दिखाई पड़ता। फिर भी शताब्दियों  के बाद वह उभर आ सकती है।  

जब हम महानता को इस प्रकार समझने की कोशिश कर रहे हैं तो इसकी सम्भावना है कि बुद्ध भी महान हो और हिटलर भी। ऊपर  की शर्तें  दोनों के ही प्रसंग में पूरी होती हैं।  फिर महानता की एक कसौटी यह भी होगी कि वह मानवता और प्रकृति मात्र के लिए कल्याणकारी है या नहीं। हिटलर या स्टालिन को ताकतवर कहा जा सकता है पर उन्हें महान कहने में हमें  संकोच होगा। 

महान व्यक्ति,विचार या रचना की एक पहचान यह है कि हम सब उसकी अपेक्षा स्वयं को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। यह  सम्बन्ध हमेशा स्वीकार का ही हो , आवश्यक नहीं। अस्वीकार या आलोचना भी उसके साथ संबंध निर्माण का जरिया या तरीका  हो सकता है. महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने  कार्यों , विचार के तरीकों  और जीवन शैली को उसके मुकाबले तौलते रहते हैं। दूसरे शब्दों में वह मानक या मानदंड की भूमिका का निर्वाह करता है और अपनी जांच करते रहने के लिए बाध्य करता है

महानता की एक और पहचान यह है कि वह मात्र एक प्रकार की ही परम्परा को जन्म नहीं देती। उसमें एक खुलापन और लचीलापन होता है और इसीलिए उसके वारिस एक ही तरह के नहीं होते।  संभव है कि उसकी विरासत का दावा करनेवाले एक- दूसरे के  विरोधी हों। तात्पर्य यह कि उसमें  बहुविध व्याख्या की संभावना होती है। अनेक कोणों  से उसे देखा जा सकता है। कोई  भी अंतिम तौर पर दावा नहीं कर सकता कि  उसने उसकी सारी संभावनाएं अपनी व्याख्या के द्वारा शेष कर दी हैं। यह भी उतना ही ठीक है कि इस लचीलेपन के साथ उसमें  प्रकार की दृढ़ता होती है और वह इसकी नहीं देती कि उसकी मनमानी व्याख्या की जा सके. दूसरे शब्दों में, उसका लचीलापन उसके अवसरवादी इस्तेमाल की अनुमति नहीं देता. ऐसा  करने वाले  ही उसके  सामने उघाड़ हो जाते हैं , यानी उसके दर्पण में आप उनका असली चेहरा देख सकते हैं, जिसे छिपाने के लिए उस महानता का मुखौटा पहनने की  वे कोशिश  कर रहे होते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक महानता का अपना एक मौलिक और बुनियादी मूल्य अथवा सन्देश  होता है, जिसे विकृत करना संभव नहीं। 

महानता या उदात्तता में एक गलतफहमी यह है कि  वह जन्मजात या दैवी गुण है. लोञ्जाइनस सावधान करते हुए लिखता है कि यह ठीक है कि यह सायास हासिल  नहीं की जा सकती लेकिन अभ्यास से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है. उदात्त विचारों या गुणों का निरंतर अभ्यास न किया जाए तो उनके लिए  आवश्यक  ग्राह्यता घटने लगती है. लम्बे समय तक क्षुद्र भाषा के अभ्यस्त कानों को  उच्च भावों से युक्त विचार हास्यास्पद भी जान पड़ सकते हैं। इस हिसाब से महानता दुस्साध्य है। उसे उपलब्ध करना जितना कठिन है, उसे पहचानना भी उतना ही मुश्किल है

महान व्यक्तित्व आवेगमय प्रतीत होते हैं और उनके निर्णयों में  स्वयंस्पूर्तता का आभास होता है। लेकिन उनके पीछे दीर्घ विचार रहता है। यह भी लगता है कि उन्हें प्रेरणा होती है या इल्हाम होता है और वे उसी के कारण वे निर्णय कर लेते हैं . इस तरह वे  तर्कातीत  भी  मालूम पड़ते हैं । लेकिन, जैसा कहा गया उस महानता के साथ समय बिताने पर उसके नियमों से भी परिचय होता है

अभ्यास के साथ उचित परामर्श भी जुड़ा हुआ है. ऐसा प्रतीत होता है उन्मुक्तता या नियममुक्तता ही इसका आत्यंतिक गुण है, लेकिन ध्यान देने पर मालूम होगा कि उसमें कहीं बहुत भीतर निश्चितता, सटीकता और अनिवार्यता की एक गहरी पहचान छुपी हुई है. साथ ही  बर्तोल्त ब्रेश्त से शब्द लेकर कह सकते हैं कि उसमें महत्वपूर्ण ( सिग्निफिकैंट) की पहचान होनी चाहिए

महानता कभी भी तात्कालिकता की आगे घुटने नहीं टेकती।  ऐसा नहीं कि वह अपने क्षण की मांग का उत्तर नहीं देती लकिन वह उस मांग से बाधित नहीं महसूस करती। इसलिए वह लोकप्रिय होने की बदहवासी में भी नहीं होती। उसमें प्रतीक्षा करने का धीरज होता है। और जन भावनाओं के विरुद्ध निर्णय लेने का साहस भी। इस रूप में वह किंचित परिवर्तनरोधी  प्रतीत हो सकती है.  इस आरोप का खतरा उठा कर भी वह अपने विचार तब तक नहीं बदलती जब तक वह पूरी तरह से उसके बारे में आश्वस्त न हो जाए। और उसके कारण वह ऐसे फैसले करती है जो वक्ती तौर पर उसकी तस्वीर जनशत्रु की बना दे सकते हैं ।  

महानता की एक अन्य पहचान उसकी अपने आप को लेकर गहरी आश्वस्ति है। वह किसी प्रकार की असुरक्षा की भावना से ग्रस्त नहीं होती। इसी कारण वह अपने से भिन्न महानता को स्वीकार भी करती है और उसके सानिध्य से घबराती नहीं। यह और बात है कि दूसरी प्रकार की महानता की लोकप्रियता के कारण ही वह उसका अनुकरण नहीं करती। यदि वह उसे मतभिन्नता रखती है तो मात्र इस कारण उसका प्रकाश करने से नहीं डरती कि जनमत उसके विरुद्ध हो जाएगा। टैगोर और गांधी के  एक दूसरे के प्रति सम्मान की कथाएं प्रचलित हैं, उतने प्रकाशित उनकी एक-दूसरे से मत- भिन्नता के किस्से नहीं हैं। इन दोनों के एक-दूसरे के प्रति व्यवहार का अध्ययन करने पर एक और नियम हाथ लगता है और वह यह कि न सिर्फ दो भिन्न प्रकार की महानताएं सह-अस्तित्व में इत्मीनान कानुभव करती हैं, बल्कि वे एक-दूसरे को संभव भी बनाती हैं। महान व्यक्ति स्वयं से विरोधी मत रखने वाले का जीना हराम नहीं करता, बल्कि उसके अस्तित्व को और सहज बनाने के उपाय करता है। 

प्रत्येक महानता की अपनी एक विलक्षण शैली होती है. जितना अपने सन्देश या विचार के कारण वह प्रभावी होती है उतनी ही अपनी शैली के कारण भी। प्रायः महानता सरल होती है, यानी दुरूहता और रहस्य उसके गुण नहीं लेकिन उस सरलता में एक काठिन्य  होता है.यह काठिन्य अपनी विशिष्ट शैली को उपलब्ध करने के क्रम में उस व्यक्तित्व में कुछ इस तरह विन्यस्त हो जाता है कि अपने करीब आने  वालों में शैलीहीनता का भ्रम पैदा करता है .  
महानता की एक पहचान क्षुद्रता के साथ उसके बेमेलपन से मिलती है.
महान व्यक्ति या रचना का एक  गुण अदम्य आशावादिता है. वह यथार्थ की न्यूनताओं से अनजान नहीं  लेकिन  मनुष्यता  की संभावना से  उसका विश्वास  नहीं डिगता.  यह भी मान सकते  हैं कि इस आशावाद के बिना महानता का स्तर प्राप्त करना किसी के लिए भी कठिन है. महानता और सफलता का कोई अन्योन्याश्रय सम्बन्ध नहीं। महानता की असफलताएं भी विराट होती हैं और  उनसे सीखने को काफी कुछ होता है

महानता का  निश्चय समय या काल करता है. व्यक्तिगत रुचि-अरुचि के दायरे से वह प्रायः परे होता है. इसलिए जब किसी महान से, जिसे जन- समुदाय के काल बोध ने वह पदवी दी है, विरक्ति होने लगे तो एक बार ठहर कर अपने बारे में भी सोच लेना चाहिए

लेखक - अपूर्वानंद 
स्रोत - जनसत्ता, 30 जून,  2013

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