वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए !
रात-दिन सूरत को देखा कीजिए
चाँदनी रातों में इक-इक फूल को
बेख़ुदी कहती है : सज्दा कीजिए
जो तमन्ना बर न आए उम्र भर
उम्र भर उसकी तमन्ना कीजिए !
इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर
चाँदनी रातों में रोया कीजिए
पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो
बेख़ुदी, तू ही बता क्या कीजिए !
हम ही उसके इश्क़ के क़ाबिल न थे
क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए !
आप ही ने दर्दे-दिल बख़्शा हमें
आप ही इसका मुदावा कीजिए
कहते हैं 'अख़्तर' वो सुनकर मेरे शे'र
इस तरह हमको न रुसवा कीजिए !
बर न आए = पूरी न हो मुदावा = इलाज
शायर - 'अख़्तर' शीरानी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें