पंडाजी भी पेंट पहनकर घूम रहे हैं
बाबाजी भी मिस नर्गिस को चूम रहे हैं
जो गाँधीवादी बनने का हैं दम भरते,
वे भी खोकर होश, नशे में झूम रहे हैं
ताल-ताल पर झुला रहे हैं पेंट आजकल
पंडितजी भी पीते हैं सिगरेट आजकल
यह जो उजला-उजला-सा गेहूँ मिलता है
उसको खाकर क्या न कमल उर का खिलता है !
और 'मिलो' के तो अनेक गुण कैसे गायें ?
हम काले कमजोर, किस तरह इसे पचायें ?
दिन-भर फूला-सा रहता है पेट आजकल
पंडितजी भी पीते हैं सिगरेट आजकल
श्रम को जो दंडवत दूर ही से करता था
जरा डाँट सुन बिना मौत ही के मरता था
कर में लिए कुदाल मूस खनता चलता था
बिना लिए कुछ नहीं द्वार पर से टलता था
वही मँगरुआ, जल्द न करता भेंट आजकल
पंडितजी भी पीते हैं सिगरेट आजकल
चिड़ीमार ! मत झिझको, मन में शर्म न लाओ
जो सद्गुण हों बचे हृदय से दूर भगाओ
होती है तारीफ सभाओं में भट्ठी की
अब न ओट के लिए जरूरत है टट्टी की
नाचो, खुलकर करो खूब आखेट आजकल
पंडितजी भी पीते हैं सिगरेट आजकल
कवि - रामजीवन शर्मा 'जीवन'
किताब - काव्य समग्र : रामजीवन शर्मा 'जीवन'
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 1996
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