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गुरुवार, 11 जुलाई 2013

पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ (Padhi-likhi murgiyan by Sarveshvar Dayal Saxena)

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

बड़े-बड़े घरों के कचरे पर डोल रहीं,
पता  नहीं कहाँ-कहाँ गंदे पर खोल रहीं,
हर अपाच्य पाच्य इन्हें,
ऐसी हैं प्रचुरगियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

साहस  है, आपस में लड़ना हैं जानतीं,
हैं स्वतन्त्र, दरबे को मात्र कवच मानतीं,
गूदा सब उतर गया,
दीख रही चियाँ-चियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

जिसकी ऊँची कलगी सब उसके साथ लगीं,
उसकी ही चमक-दमक के हैं अनुराग-रँगी,
अंडे कितने देंगी 
जोड़ रहे बैठ मियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

संकलन - कविताएँ-2 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1978


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