साथी, सो न, कर कुछ बात !
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मन्द 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल-स्नात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अन्त चिर-अज्ञात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
कवि - हरिवंशराय बच्चन
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : हरिवंशराय बच्चन
संपादक - मोहन गुप्त
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1986
मन है कि स्थिर ही नहीं हो रहा ! बच्चन की ये पंक्तियाँ - "साथी, सो न, कर कुछ बात !" बार-बार याद आ रही हैं.
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मन्द 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल-स्नात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अन्त चिर-अज्ञात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
कवि - हरिवंशराय बच्चन
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : हरिवंशराय बच्चन
संपादक - मोहन गुप्त
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1986
मन है कि स्थिर ही नहीं हो रहा ! बच्चन की ये पंक्तियाँ - "साथी, सो न, कर कुछ बात !" बार-बार याद आ रही हैं.
व्यथा कितनी निजी होती है .. स्वयं से ही बांटता है आदमी....
जवाब देंहटाएं