कोई और है, नहीं तू नहीं, मेरे रूबरू कोई और है
बड़ी देर में तुझे देखकर ये लगा कि तू कोई और है
ये गुनाहगारों की सरज़मीं है बहिश्त से भी सिवा हसीं
मगर इस दयार की ख़ाक में सबबे-नमू कोई और है
जिसे ढूँढ़ता हूँ गली-गली वो है मेरे जैसा ही आदमी
मगर आदमी के लिबास में वो फ़रिश्ता-खू कोई और है
कोई और शै है वो बेख़बर जो शराब से भी है तेज़तर
मिरा मैकदा कहीं और है और मिरा हमसुबू कोई और है
सिवा = बढ़कर
सबबे-नमू = सामने आने का कारण
फ़रिश्ता-खू = फ़रिश्तों जैसा स्वभाववाला
हमसुबू = साथ पीनेवाला
शायर - नासिर काज़मी
संग्रह - ध्यान यात्रा
संपादक - शरद दत्त, बलराज मेनरा
संपादक - शरद दत्त, बलराज मेनरा
प्रकाशक - सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 1994
उर्दू कविता हो और ख़ुर्शीद याद न आएँ, भला यह कैसे होगा ! फिर भी समय है कि बीत ही जाता है. आज से एक महीने पहले उनको हम सब निगमबोध छोड़ आए थे.
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