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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

अब कुछ ठीक नहीं (Ab kuchh theek nahin by Sarveshwar Dayal Saxena)

अब कुछ  ठीक नहीं l 

मैं कब हँस पडूँ 
कब चीखकर 
अपना गला दबा लूँ 
कब छुरा उठाकर 
सामने वार कर बैठूँ 
अब कुछ  ठीक नहीं l 

मेरे चारों तरफ 
कुएँ का यह घेरा 
सँकरा होता होता 
मेरे जिस्म को ही नहीं 
मेरी आत्मा को छूने लगा है 
अब कुचला जाना मेरी नियति बनता जा रहा है l 

मुझे धरती दरक जाने का डर नहीं था 
न आसमान फटने का 
उनमें से रास्ता निकालना 
मैं जानता था 
युगों से मैं यही करता आ रहा हूँ l 
लेकिन अब 
जिस सिकुड़ते घेरे में मैं पड़ गया हूँ 
उसकी हर ईंट का 
मुझे दबोचने का तरीका अजीब है -
वह या तो 
देखते ही पीछे हट जाती है,
छूते ही आकार खो देती है,
या कुछ कहते ही 
पिघलकर पानी बन जाती है l 
कायरों, ढोंगियों और मूर्खों का यह घेरा 
बनता जा रहा है इतिहास मेरा l 

मैं सोचता था 
इन्हें पहचानकर 
इन्हें सही-सही समझकर 
मैं इस कुएँ के बाहर 
निकल आऊँगा 
और इसी के सहारे 
एक व्यापक हरा-भरा संसार रचूँगा l 

लेकिन अब किसी की 
कोई पहचान नहीं 
और इनसे घिरकर 
मैं अपनी पहचान भी 
        खोता जा रहा हूँ l 
अब कुछ  ठीक नहीं 
मैं कब क्या हो जाऊँ ?

कब हँस पडूँ 
कब चीखकर 
अपना गला दबा लूँ 
कब छुरा उठाकर 
सामने वार कर बैठूँ 

अब कुछ  ठीक नहीं l 




कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन - खूँटियों पर टँगे लोग
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1982


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