अब कुछ ठीक नहीं l
मैं कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ
अब कुछ ठीक नहीं l
मेरे चारों तरफ
कुएँ का यह घेरा
सँकरा होता होता
मेरे जिस्म को ही नहीं
मेरी आत्मा को छूने लगा है
अब कुचला जाना मेरी नियति बनता जा रहा है l
मुझे धरती दरक जाने का डर नहीं था
न आसमान फटने का
उनमें से रास्ता निकालना
मैं जानता था
युगों से मैं यही करता आ रहा हूँ l
लेकिन अब
जिस सिकुड़ते घेरे में मैं पड़ गया हूँ
उसकी हर ईंट का
मुझे दबोचने का तरीका अजीब है -
वह या तो
देखते ही पीछे हट जाती है,
छूते ही आकार खो देती है,
या कुछ कहते ही
पिघलकर पानी बन जाती है l
कायरों, ढोंगियों और मूर्खों का यह घेरा
बनता जा रहा है इतिहास मेरा l
मैं सोचता था
इन्हें पहचानकर
इन्हें सही-सही समझकर
मैं इस कुएँ के बाहर
निकल आऊँगा
और इसी के सहारे
एक व्यापक हरा-भरा संसार रचूँगा l
लेकिन अब किसी की
कोई पहचान नहीं
और इनसे घिरकर
मैं अपनी पहचान भी
खोता जा रहा हूँ l
अब कुछ ठीक नहीं
मैं कब क्या हो जाऊँ ?
मैं कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ
अब कुछ ठीक नहीं l
मेरे चारों तरफ
कुएँ का यह घेरा
सँकरा होता होता
मेरे जिस्म को ही नहीं
मेरी आत्मा को छूने लगा है
अब कुचला जाना मेरी नियति बनता जा रहा है l
मुझे धरती दरक जाने का डर नहीं था
न आसमान फटने का
उनमें से रास्ता निकालना
मैं जानता था
युगों से मैं यही करता आ रहा हूँ l
लेकिन अब
जिस सिकुड़ते घेरे में मैं पड़ गया हूँ
उसकी हर ईंट का
मुझे दबोचने का तरीका अजीब है -
वह या तो
देखते ही पीछे हट जाती है,
छूते ही आकार खो देती है,
या कुछ कहते ही
पिघलकर पानी बन जाती है l
कायरों, ढोंगियों और मूर्खों का यह घेरा
बनता जा रहा है इतिहास मेरा l
मैं सोचता था
इन्हें पहचानकर
इन्हें सही-सही समझकर
मैं इस कुएँ के बाहर
निकल आऊँगा
और इसी के सहारे
एक व्यापक हरा-भरा संसार रचूँगा l
लेकिन अब किसी की
कोई पहचान नहीं
और इनसे घिरकर
मैं अपनी पहचान भी
खोता जा रहा हूँ l
अब कुछ ठीक नहीं
मैं कब क्या हो जाऊँ ?
कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ
अब कुछ ठीक नहीं l
कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
संकलन - खूँटियों पर टँगे लोग
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1982
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें