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रविवार, 9 मार्च 2014

अधरात घास-गन्ध (Adhraat ghaas-gandh by Gyanendrapati)

अचानक आधी रात 
खुल जाती है नींद 
हवा में भीनी-भीनी-सी गन्ध 
मन में उमंग 
कि दबे पाँव छत पर जा 
देखा जाए, कहाँ हैं सप्तर्षि 
नथुनों को फुला 
खींचता हूँ एक लम्बी साँस 
अरे ! यह तो घास काटने की ताज़ा गन्ध
क्या यह मेरे बचपन का भिनसार 
ओढ़ना हटा, नींद में चलता 
देखूँगा क्या गोहाल के पास 
काट रहे घास की कुट्टी बाबा 
सधे हाथों खट् खट् खट्
बैठूँगा सामने ही उन-सा उकडूँ 
नींद से मुँदी आँखें 
बस खुले नथुने घास की गन्ध से नहाते 
फेफड़े 
हरी गन्ध से पुलकित रँगे जाते 
अचानक आधी रात
खुल जाती है नींद 
हवा में भीनी-भीनी-सी गन्ध 
मन में उमंग 
पैर उतरना चाहते बिस्तर से 
हाथ खोलना चाहते खिड़की 
कि तभी खयाल अचानक 
कि भूचाल 
अरे ! कहीं यह फास्जीन गैस तो नहीं 
जो महकती ताज़ा कटी घास की तरह 
या मिथाइल आइसोसाइनेट या साइनाइड या क्लोरिन 
या इन-सा ही कोई नाम 
औद्योगिक सभ्यता का जटिल बार्बडवायर शब्द कोई 
खींचता खरोंच 
जन-मन पर 

यह खयाल 
कि दम घुटता है 
आँखें सुलगती-गलती हैं 
ग्रसती है चिन्ता, कहाँ दूसरे 
अपने घर में या घर से बाहर 
दुबले हड़ियल बच्चे-बूढ़े 
चिन्ताकुल ममता-मूर्तियाँ 
उमगते युवक 
जिन्हें साथ होना था 
जिनके साथ होना था 
इस पल 
अपनी नींद में ही जो निरापद 
भोले-भाले 
निश्शंक निढाल 
लेते निश्वास 
कि तभी 
लहक-लपक पड़ने को उद्यत मन को 
फुसलाता है 
तन के साथ सोया रहना चाहनेवाला मन-खण्ड 
पाखण्ड 
अरे ! अरे ! 
व्यर्थ घबराहट ! निरर्थक चिन्ता !
यहाँ कहाँ यूनियन कार्बाइड का कारखाना 
कोई कीटनाशक संयन्त्र
भोपाल नहीं यह, पटना है पटना 
गंगा तीरे 
दूर बहुत कैंची छोला से 
क्या सचमुच ?
इस झाँसा-पट्टी से 
बच सकती है नींद ?
भोपाल से पटना को 
या कि वियतनाम से भारत को 
अलग कर सोया जा सकता है ?
जब वियतनाम की वनस्पति पर 
एजेण्ट आरेन्ज का कहर टूटता 
सघन जंगल जब 
झाड़-झंखाड़ होते हैं 
निष्कवच होते हैं जन-योद्धा 
क्या केवल वियतनामी गुरिल्ला ही नहीं 
हम भी होते हैं 
हम सब जो दुनिया के तीन चौथाई देशों में अलग-अलग 
अपने देश की माटी को गूँथ
बनाना चाहते देश की प्रतिमा नई
देश की माटी खनिजोर्वर
लगी जिसमें साम्राज्यवाद की सेन्ध 
जिसके वक्ष के अमृतकुण्ड में 
गहरे धँसा शोषण का अदृश्य साइफन 
अमरीकी अर्थपिशाच की आक्टोपसी सूँड

हाँ, हम सब 
गरीब मुल्कों के वासी 
पिछड़े अनपढ़ 
हमारे दलिद्दर पर घड़ियालों के आँसू बहते 
करुणा उमड़ती 
बढ़ते कर 
बघनखे छुपाए 
सन्धियों समझौतों सहयोगों में 
हाँ, हम सब 
गरीब मुल्कों के वासी 
आदमी से नीचे 
रासायनिक युद्धों के पूर्वाभ्यास के लिए 
गिनीपिग 

अरे नहीं ! नहीं !
तोबा ! तोबा !
मुण्ड हिलाता जीभ काटता है दुनिया का सबसे पुराना लोकतन्त्र

मुण्ड झुकाता जीभ चलाता है दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र 
चच्चा सैम को कनखियों से ताकता भतीजा सैमसन :
दुर्घटना है यह 
दुखद दुर्घटना 
विकास के रस्ते में 
तेज़ रफ़्तार गाड़ी बस ज़रा फिसल गई 
लेकिन क्या निदान !
जाना तो है गन्तव्य तक 
आओ ! ब्रेक-टायर दुरुस्त करें हम 
होश न खोयें, नए जोश से 
बढ़ें, चाल न अपनी सुस्त करें हम 

विकास !
हाँ, ठीक सुना हमने 
विनाश नहीं विकास 
टूटते हैं अब भी 
प्रकृति के प्रकोप हम पर 
सूखा बाढ़ शीतलहर 
पारा-पारी 
अब यह टूटता है 
औद्योगिक प्रकोप 
प्रकोप क्या, प्रलय का पूर्वाभ्यास 
क्या हम सब 
अपने-अपने घर में बन्द
दरवाजों की सेंधों गोखों बच्चों की चीत्कारों में 
जहाँ-जहाँ चमकता आकाश 
धड़कती छाती बहती आँखों कँपती उँगलियों से 
ठूँसते रहेंगे चिथड़े
चिथड़े-चिथड़े कर 
फटेहाल ज़िन्दगी अपनी 
कब तक 
या तो मरेंगे 
या बस बचे रहेंगे 
हाँफते खाँसते
गर्भवती माताओं के सिरहाने 
जो भविष्य को रचने से पहले 
उघड़ा हुआ पाने लगी हैं 

क्या हम सब 
अपने-अपने घर में बन्द
अधरात अचानक 
हवा में घास की गन्ध आने से 
सिहरते रहेंगे चुपचाप 
स्तब्ध 
कि अब सुनाई देगा कोई साइरन 
बजेगी कोई ख़तरे की घण्टी 
कि हम कहेंगे 
बहुत बज चुकी ख़तरे की घण्टी 
अपने-अपने घर से बाहर आ 
यह एक मुट्ठी की तरह कसने का वक़्त है 
विषबेलमुण्ड से चिकने चमकीले 
इस लोकतन्त्र नहीं लोभतन्त्र को फोड़ने का वक़्त है 
सृजन और शान्ति के लिए 
कसना ही होगा मानव-समुदायों को 
एक संकल्पित मुट्ठी में 
युद्ध और विनाश की तिजारत के विरुद्ध 
मौत के आढ़तियों की दुकानों के शटर
गिराने ही होंगे 
देश-देश में 
जनमत के बल से 

कहना ही होगा हमें 
हम प्रलय होने न देंगे 
इस सौरमण्डल में 
जीवन-ज्योतित पृथ्वी का गोलक 
घूमता रहेगा अनन्तकाल 
मानव की जययात्रा 
शवयात्रा में बदलेगी नहीं


कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004

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