ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन
तुमने तो कहा था आओगी
ये काली अंधी रातों का
सब चीर अँधेरा आओगी
हाँ ले के सवेरा आओगी
हम शब-भर जागे, बैठे रहे
जब ओस ने चादर फैलाई
जब चाँद ने झलकी दिखलाई
जब अंबर पर तारे चमके
जब जंगल में जुगनू दमके
और बादल-बादल घिर आई
इक ज़ालिम-ज़ालिम तन्हाई
फिर हमने इक सपना देखा
फिर हमने इक धोका खाया
ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन
तुम कौन-से दर्द का दरमाँ थीं
तुम आतीं तो क्या बुझ जातीं
ये प्यास हमारे होंठों की
ये प्यास हमारे सीने की
ये प्यास बदन की चाहत की
तुम आ जातीं तो क्या होता ?
दिल फिर भी यूँ ही तन्हा होता
ये जैसा है वैसा होता
या मुमकिन है इतना होता
ये तुमसे लिपट रोया होता
ऐ सूरज की दोशीज़ा किरन
दोशीज़ा = क्वाँरी
शायर - इब्ने इंशा (1927-1978)
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990
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