अंबर ने धरती पर फेंकी नूर की छींट उदास-उदास
आज की शब तो अंधी शब थी, आज किधर से निकला चाँद?
इंशा जी यह और नगर है, इस बस्ती की रीत यही
सबकी अपनी-अपनी आँखें, सबका अपना-अपना चाँद !
अपने सीने के मतला पर जो चमका वह चाँद हुआ
जिसने मन के अँधियारे में आन किया उजियारा,चाँद
चंचल मुस्काती-मुस्काती गोरी का मुखड़ा महताब
पतझड़ के पेड़ों में अटका पीला-सा इक पत्ता चाँद
दुख का दरिया, सुख का सागर इसके दम से देख लिए
हमको अपने साथ ही लेकर डूबा चाँद और उभरा चाँद
शायर - इब्ने इंशा (1927-1978)
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990
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