अपने हमराह जो आते हो, इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले
चल दिए उठ के सूए-शहरे-वफ़ा कूए-हबीब
पूछ लेना था किसी खाक़बसर से पहले
इश्क़ पहले भी किया, हिज्र का ग़म भी देखा
इतने तड़पे हैं न घबराए न तरसे पहले
जी बहलता ही नहीं अब कोई साअत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले
हम किसी दर पे न ठिठके न कहीं दस्तक दी
सैंकड़ों दर थे मेरी जाँ तेरे दर से पहले
चाँद से आँख मिली, जी का उजाला जागा
हमको सौ बार हुई सुब्ह, सहर से पहले
शायर - इब्ने इंशा (1927-1978)
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990
200वीं पोस्ट के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंसारी दुनिया में दर-ब-दर भटका
जवाब देंहटाएंखुद से बिछड़ा तो किस कदर भटका
तेरी ख्वाहिश तेरी पुकार लिए
ख्वाब में भी मैं तर-ब-तर भटका
शहर में हर कदम पे फंदे थे
बन में भटका तो बेहतर भटका
तू समंदर है मैं लहर हूँ खुदा
तू ही थामे रहा जिधर भटका
वो फरेबी था वो जालिम था मगर
उसकी सूरत मैं देखकर भटका
मेरे लफ्जों में झिलमिलाने को
चाँद अंबर में रातभर भटका
ख्वाब शाइर के सितारों में चले
गर्दो-गर्दिश में उसका घर भटका
वहाँ तू अर्श पे बैठा है यहाँ
तेरा निजाम सरासर भटका।