हम उनसे अगर मिल बैठते हैं क्या दोष हमारा होता है
कुछ अपनी जसारत (दिलेरी) होती है कुछ उनका इशारा होता है
कटने लगीं रातें आँखों में, देखा नहीं पलकों पर अक्सर
या शामे-ग़रीबाँ का जुगनू या सुब्ह का तारा होता है
हम दिल को लिए हर देस फिरे इस जिंस के गाहक मिल न सके
ऐ बंजारो हम लोग चले, हमको तो ख़सारा (नुक़सान) होता है
दफ़्तर से उठे कैफ़े में गए, कुछ शे'र कहे कुछ कॉफ़ी पी
पूछो जो मआश (आजीविका) का इंशा जी यूँ अपना गुज़ारा होता है
शायर - इब्ने इंशा (1927-1978)
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990
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