जिसे बात के रब्त का फ़ाम नईं
उसे शेर कहने सूँ कुछ काम नईं
नको कर तू लई बोलने का हवस
अगर ख़ूब बोले तो यक बैत बस
हुनर है तो कुछ नाज़ुकी बरत याँ
कि मोटाँ नईं बाँदते रंग कियाँ
वो कुछ शेर के फ़न में मुश्किल अछे
कि लफ़्ज़ होर माने यू सब मिल अछे
उसी लफ़्ज़ को शेर में लियाएँ तूँ
कि लिआया है उस्ताद जिस लफ़्ज़ कूँ
अगर फ़ाम है शेर का तुज कूँ छन्द
चुने लफ़्ज़ लिया होर मानी बुलन्द
रखिया एक मानी अगर ज़ोर है
वले भी मज़ा बात का होर है
अगर ख़ूब महबूब जूँ सोर है
सँवारे तो नूर अली नूर है
अगर लाक ऐबाँ अछे नार में
हुनर हो दिसे ख़ूब सिंगार में
शायर - मुल्ला वजही
किताब - उर्दू का आरम्भिक युग
लेखक - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007
अपनी 'उर्दू का आरम्भिक युग' किताब के 'सैद्धांतिक आलोचना और काव्यशास्त्र के उदय' शीर्षक अध्याय में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी बताते हैं कि मुल्ला वजही ने अपनी मसनवी 'क़ुत्ब मुश्तरी' (1609-10) में भाषा की शुद्धता और मापदंड के बारे में खुलकर लिखा है। "वजही की दृष्टि में शेर में शब्दों का बुनियादी महत्त्व है" और "उस्ताद जो शब्द प्रयोग करे वह सही, और जिसे वह ग़लत कहे वो ग़लत। इस प्रकार वजही सामान्य प्रचलन से अधिक उस्ताद की बात को महत्त्व देते हैं। दूसरी बात यह कि वजही के यहाँ शैली और शब्दों के गुण को भी महत्त्वपूर्ण कहा गया है। यहाँ तक कि विषय मामूली भी हो, तो उसे सुन्दर शैली के द्वारा आकर्षक बनाया जा सकता है ...अंतिम महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वजही ने संस्कृत-साहित्य के अनुरूप सिद्धांत पेश किया है कि शब्द और अर्थ में पूरी समानता और सामंजस्य होना चाहिए।"
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