रह-रह कर बज उठती वीणा अन्तर की,
जा रही सधी सीमा में पंचम स्वर की l
आवरण पड़ा हट गया ज्ञान-दर्शन पर,
खिंच गई रश्मि-रेखा-सी भीतर-बाहर l
भर मन-अम्बर रंगों के घन से घुमड़ा,
सागर ही जैसे हृदयराग का उमड़ा l
उठ रही भैरवी की मरोर अनजानी,
हिय में गहरे घावों की पीर पुरानी l
बन गई वेदना आँखों में अंजन-सी,
गीतों के गुंजन में नव अभिव्यंजन-सी l
संगीत उतर आया क्षर में, अक्षर में,
सब एक हो गए स्वर के लहर-भँवर में l
(सितंबर, 1976)
कवि - रामइकबाल सिंह 'राकेश'
किताब - राकेश समग्र
संपादन - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001
जा रही सधी सीमा में पंचम स्वर की l
आवरण पड़ा हट गया ज्ञान-दर्शन पर,
खिंच गई रश्मि-रेखा-सी भीतर-बाहर l
भर मन-अम्बर रंगों के घन से घुमड़ा,
सागर ही जैसे हृदयराग का उमड़ा l
उठ रही भैरवी की मरोर अनजानी,
हिय में गहरे घावों की पीर पुरानी l
बन गई वेदना आँखों में अंजन-सी,
गीतों के गुंजन में नव अभिव्यंजन-सी l
संगीत उतर आया क्षर में, अक्षर में,
सब एक हो गए स्वर के लहर-भँवर में l
(सितंबर, 1976)
कवि - रामइकबाल सिंह 'राकेश'
किताब - राकेश समग्र
संपादन - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001
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