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गुरुवार, 8 अगस्त 2013

फज़िर की अज़ान (Fazir ki azaan by Gyanendrapati)


फज़िर की अज़ान
लाने चली सूरज को 
आकाशलंघी आलाप की लम्बी रस्सी से खींच 
खिंचा चला आता है नलकों में पानी 
करता तर, खुली टोंटियोंवाले, देर से सन्नाते, नलकों के ख़ुश्क हलक 
और जग उठती हैं हलक में फँसी 
दमदार बूढ़ी देहों की दमादार खाँसियाँ
और खड़क उठती हैं खाली बाल्टियाँ बेसाख़्ता 
और भरी बची रात छलक उठती है 
उनके भीतर से बाहर, गोलार्ध के बाहर 


यह एक भारतीय भोर है 
एक मँझोले नगर का 
झंगोले पर लेटा 
प्रत्यूष को सुनता हूँ 
पृथ्वी पर प्रतिध्वनित 
और लगता है 
कबसे सुनता ही आ रहा हूँ
अपने होने से भी पहले से 
भारतीय भोर की यह आहट 
सुनता हूँ 
और बड़ी भोरहरिया, बाबा जिसे कहते थे ब्राह्म वेला 
झलफलाह में जब दिशाएँ खुलने लगती हैं 
पुरुब में बलता हुआ भुरुकवा 
औचक और अजीब एक ख़याल बन उजलता है भीतर :
भारतीय आकाश से 
खदेड़ने न देंगे कभी किसी गिद्ध-दल को
फज़िर की अज़ान


कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004

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