मन जलता है,
अन्धकार का क्षण जलता है,
मन जलता है !
मेरा मन तन बन जाता है,
तन का मन फिर कटकर,
छँटकर
कन-कन ऊपर
उठ पाता है !
मेरा मन तन बन जाता है !
तन के मन के श्रवण नयन हैं,
जीवन से सम्बन्ध गहन हैं ;
कुछ पहचाने, कुछ गोपन हैं,
जो सुख-दुख के संवेदन हैं !
कब यह उड़ जग में छा जाता,
जीवन की रज लिपटा लाता,
घिर मेरे चेतना गगन में
इन्द्रधनुष घन बन मुसकाता ?
नहीं जानता, कब, कैसे फिर
यह प्रकाश किरणें बरसाता !
बाहर-भीतर ऊपर-नीचे
मेरा मन जाता-आता है,
सर्व व्यक्ति बनता जाता है !
तन के मन में कहीं अन्तरित
आत्मा का मन है चिर ज्योतित,
इन छाया दृश्यों को जो
निज आभा से कर देता जीवित !
यह आदान-प्रदान मुझे
जाने कैसे क्या सिखलाता है !
क्या है ज्ञेय ? कौन ज्ञाता है ?
मन भीतर-बाहर जाता है !
मन जलता है,
मन में तन में रण चलता है ;
चेतन अवचेतन नित नव
परिवर्तन में ढलता है !
मन जलता है !
कवि - सुमित्रानंदन पन्त
संकलन - स्वच्छंद
प्रमुख संपादक - अशोक वाजपेयी, संपादक - अपूर्वानंद, प्रभात रंजन
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000
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