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गुरुवार, 22 अगस्त 2013

छायापट (Chhayapat by Sumitranandan Pant)

मन जलता है,
अन्धकार का क्षण जलता है,
मन जलता है !

मेरा मन तन बन जाता है,
तन का मन फिर कटकर,
छँटकर 
कन-कन ऊपर 
उठ पाता है !
मेरा मन तन बन जाता है !

            तन के मन के श्रवण नयन हैं,
            जीवन से सम्बन्ध गहन हैं ;
            कुछ पहचाने, कुछ गोपन हैं,
            जो सुख-दुख के संवेदन हैं !
            कब यह उड़ जग में छा जाता,
            जीवन की रज लिपटा लाता,
            घिर मेरे चेतना गगन में 
            इन्द्रधनुष घन बन मुसकाता ?
            नहीं जानता, कब, कैसे फिर 
            यह प्रकाश किरणें बरसाता !
            बाहर-भीतर ऊपर-नीचे 
            मेरा मन जाता-आता है,
            सर्व व्यक्ति बनता जाता है !
 
तन के मन में कहीं अन्तरित 
आत्मा का मन है चिर ज्योतित,
इन छाया दृश्यों को जो 
निज आभा से कर देता जीवित !

            यह आदान-प्रदान मुझे 
            जाने कैसे क्या सिखलाता है !
            क्या है ज्ञेय ? कौन ज्ञाता है ?
            मन भीतर-बाहर जाता है !

            मन जलता है,
            मन में तन में रण चलता है ;
            चेतन अवचेतन नित नव 
            परिवर्तन में ढलता है !
            मन जलता है !


कवि - सुमित्रानंदन पन्त  
संकलन - स्वच्छंद  
प्रमुख संपादक - अशोक वाजपेयी, संपादक - अपूर्वानंद, प्रभात रंजन
प्रकाशक -  महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000

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