(1)
हवा मेरे खिलाफ होती
तो सोचता - बहुत कठिन है इसके बीच से गुजरना
किन्तु खिलाफ
तो
मैं हूँ - हवा के
क्योंकि निर्विघ्न बहती इस हवा में
बहुत कुछ है ऐसा, जरूरी है जिसका रोका जाना
अब हवा है कि टकरा रही है मुझसे
चोट-पर-चोट-पर-चोट करती मेरे सीने पर
चाहती है : कर लूँ पीठ मैं भी उसकी ओर
और उकड़ूँ बैठ जाऊँ औरों की तरह उसके सम्मान में
और, यही मुझे मंजूर नहीं
मंजूर नहीं मुझे - बिना छने हवा को अपने पास से गुजरने देना
(2)
यह जो हवा को बीच राह रोक कर खड़ा हूँ मैं
- सहता उसकी हुंकार
- झेलता उसके दंश
खिलाफ नहीं हूँ उसके बहाव के
चाहता हूँ - बहे
पूरे वेग से, निर्विघ्न बहे
लेकिन यह नहीं कि
उसके बहाव के कारण
कोई तरुवर झुक जाए इतना कि चूमने लगे धरती
कोई आदमी रख ले आँखों पर हाथ, उकड़ू बैठकर फेर ले पीठ
और जैसे चाहे वैसे गुजर जाने दे उसे
या किसी सागर का गहरा नीला जल
लाँघ जाए तट की मर्यादा
और भूल जाए
कि जिधर से गुजरेगा उधर भी जीवन है : पूरा-का-पूरा जीवन
(3)
सच कहती है हवा
वह कभी नहीं रही खिलाफ मेरे
खिलाफ तो मैं ही चलता रहा उसके
जानती है हवा
जहाँ-जहाँ से गुजरती है वह
ऋणी हो जाता है सारा-का-सारा जीवन
अब चाहे तो सब कुछ ज्यों-का-त्यों छोड़ चुपचाप गुजर जाए
या कुछ उलट-पुलट दे : कुछ तहस-नहस कर दे
ऐसे में कैसे बर्दाश्त करे हवा
एक अकेले, निहत्थे
किन्तु सिर उठाए आदमी को
कवि - मुकेश प्रत्यूष
संकलन - हाशिये के लिए जगह
प्रकाशन - अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, द्वितीय संस्करण, 2022