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सोमवार, 28 जुलाई 2025

हवा (By Mukesh Pratyush)

 (1) 

हवा मेरे खिलाफ होती 

तो सोचता - बहुत कठिन है इसके बीच से गुजरना 

किन्तु खिलाफ 

तो 

मैं हूँ - हवा के 

क्योंकि निर्विघ्न बहती इस हवा में 

बहुत कुछ है ऐसा, जरूरी है जिसका रोका जाना 


अब हवा है कि टकरा रही है मुझसे 

चोट-पर-चोट-पर-चोट करती मेरे सीने पर 

चाहती है : कर लूँ पीठ मैं भी उसकी ओर 

और उकड़ूँ बैठ जाऊँ औरों की तरह उसके सम्मान में 

और, यही मुझे मंजूर नहीं 

मंजूर नहीं मुझे - बिना छने हवा को अपने पास से गुजरने देना 


(2)

यह जो हवा को बीच राह रोक कर खड़ा हूँ मैं 

- सहता उसकी हुंकार 

- झेलता उसके दंश 

खिलाफ नहीं हूँ उसके बहाव के 

चाहता हूँ - बहे 

पूरे वेग से, निर्विघ्न बहे 

लेकिन यह नहीं कि 

उसके बहाव के कारण 

कोई तरुवर झुक जाए इतना कि चूमने लगे धरती 

कोई आदमी रख ले आँखों पर हाथ, उकड़ू बैठकर फेर ले पीठ 

और जैसे चाहे वैसे गुजर जाने दे उसे 


या किसी सागर का गहरा नीला जल 

लाँघ जाए तट की मर्यादा 

और भूल जाए 

कि जिधर से गुजरेगा उधर भी जीवन है : पूरा-का-पूरा जीवन 


(3)

सच कहती है हवा

वह कभी नहीं रही खिलाफ मेरे 


खिलाफ तो मैं ही चलता रहा उसके 


जानती है हवा

जहाँ-जहाँ से गुजरती है वह 

ऋणी हो जाता है सारा-का-सारा जीवन  

अब चाहे तो सब कुछ ज्यों-का-त्यों छोड़ चुपचाप गुजर जाए 

या कुछ उलट-पुलट दे : कुछ तहस-नहस कर दे 


ऐसे में कैसे बर्दाश्त करे हवा

एक अकेले, निहत्थे 

किन्तु सिर उठाए आदमी को 


कवि - मुकेश प्रत्यूष

संकलन - हाशिये के लिए जगह 

प्रकाशन - अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, द्वितीय संस्करण, 2022 

शनिवार, 26 जुलाई 2025

नूपुर आज बजाओ ना (Nupur aaj bajao na by Gopal Singh 'Nepali')


इतनी भी क्या देर कर रही, 

झटपट साज सजाओ ना !

मेरे सूने से आँगन में

नूपुर आज बजाओ ना !

यों तो वन-उपवन में उड़ती

है फूलों की धूल,

उपवन की क्यारी-क्यारी में

बिछे हुए हैं शूल

पर जब आता नव वसन्त है,

खिल उठते वनफूल,

सजती डाल, पवन चलता है

डाल-डाल पर झूल !

तुम भी जीवन की तरंग में

झूलो और झुलाओ ना!

गा-गाकर मधुगान कोकिले,

सरस वसंत बुलाओ ना !


यों तो पहले से टूटे हैं 

जग-वीणा के तार,

उत्सव बिना जगत सूना है,

लगता जीवन भार, 

पर जब आता पावस, होती 

फुहियों की बौछार,

सुन संगीत झमक उठता है 

मन्त्रमुग्ध संसार। 

प्यासे मेरे प्राण, प्रेम से 

जीवन-सुधा पिलाओ ना!

पढ़कर मन्त्र, छिड़क ममता-जल 

आओ आज जिलाओ ना!


नियति-व्यंग्य से, प्रकृति रोष से 

मानव है भयभीत,

आँखों में आँसू भर कर वह

गाता दुःख के गीत

कठिन विरह अनुकूल जगत में

मधुर मिलन विपरीत,

जन्म-जन्म की हार और यह

दो-दो क्षण की जीत!

युग-युगव्यापी उत्पीड़न से

मेरे प्राण छुड़ाओ ना !

मेरे उर की दीप-शिखा में

आओ, नयन जुड़ाओ ना !


जग का गहर तिमिर हरता है – 

नव प्रभात रवि बाल,

डाल दिया करती मुट्ठी भर

संध्या अबिर गुलाल,

ज्योति तिमिर की वय:संधि में

जग का यौवन लाल,

चन्द्रकिरण बुनती है जलथल

दिग-दिगंत छवि जाल !


मेरे जीवन के निकुंज में

चन्द्रकिरण बन जाओ ना !

मेरी आंखों की पलकों पर

मधुर स्वप्न बन छाओ ना !


क्षणिक जगत, जीवन क्षण भंगुर, 

किंतु अमर है पीर!

सुख है चंचल, दुख है चंचल

प्राण-स्रोत गंभीर !

खेल रहे हैं हम-तुम दोनों

जन्म-मरण के तीर !

दोनों जग के बीच खिंची है

लंबी एक लकीर !

बहुत पुरानी इस लकीर को

आओ आज मिटाओ ना !

जन्म-ज्योति से मृत्यु-तिमिर की - 

सीमा दूर हटाओ ना!

प्यासे मेरे प्राण, प्रेम से

जीवन-सुधा पिलाओ न !


कवि - गोपाल सिंह 'नेपाली'

संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति - 2014 

शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

नोटबन्दी (Demonetisation by Shruti Kushwaha)

मैं तितलियों का मुरीद था 

मेरा रंगो-बू से क़रार था

मेरे हौसले थे हवाओं में 

मुझे मछलियों से प्यार था

ये हाल ही की तो बात है 

कि तभी निज़ाम बदल गया 


मेरी ज़िन्दगी में सुकून था

मेरे मुँह में मेरी ज़बान थी

इसी मेज़ पर अख़बार था

यहीं जुगनुओं की दुकान थी 

ये हाल ही की तो बात है 

कि तभी निज़ाम बदल गया 


तेरा हुस्न था मेरा इश्क़ था

दुनिया में बस ये बवाल था

तेरे होंठ जैसे गुलाब हों 

उन्हें चूमने का ख़याल था

ये हाल ही की तो बात है 

कि तभी निज़ाम बदल गया 


न तो जाम से कोई ख़ौफ़ था

न चाय में कोई खोट था

मेरी जेब में वो हसीन सा 

उफ़्फ़ इक हज़ार का नोट था

ये हाल ही की तो बात है 

कि तभी निज़ाम बदल गया 


कवयित्री : श्रुति कुशवाहा 

संकलन : सुख को भी दुख होता है 

प्रकाशन: राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2025

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

फ़र्क़ पड़ता है (Farq padta hai by Krishna Mohan Jha)

सिर्फ़ बस्ती के उजड़ने से नहीं 

सिर्फ़ आदमी के मरने से नहीं 

सिर्फ़ गाछ के उखड़ने से नहीं 

एक पत्ती के झरने से भी फ़र्क़ पड़ता है

                                     - 2005 


कवि - कृष्णमोहन झा 

संकलन - तारों की धूल 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2025  

रविवार, 20 जुलाई 2025

लाल कार्ड (Laal card by Anuj Lugun)

 पगदण्डियों पर चलते हुए 

आँखों से उगता है लाल कार्ड

गरीबी और भूख का पहचान-पत्र 

हमारे झोले से झाँकता है 


बिना पहचान-पत्र के 

कोई काम नहीं होता है 

भूख को भी 

चाहिए होता है एक कार्ड


एटीएम कार्ड

क्रेडिट कार्ड

डेबिट कार्ड

उनकी शोभा है

जो भूख को 

विज्ञापन से पहचानते हैं 


हमारा तो है लाल कार्ड

पगदण्डियों पर चलते हुए 

सपनों में लहराता है 

किसी झण्डे की तरह 

किसी आवाज़ की तरह 

अपना दम ठोंकता है 

महाजन बहुत बिगड़ता है इससे। 

                                   - 16.03.2020 



कवि - अनुज लुगुन 

संकलन - पत्थलगड़ी 

प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, 2021 


प्याज एक संरचना है (Pyaaj ek sanrachana hai by Rajesh Joshi)


एक संरचना है प्याज। 
सैंकड़ों पत्तियाँ 
एक-दूसरे से गुँथी हुई 
एक संघटित घटना 
एक हलचल 
ज़मीन में फैलती हुई। 

एक संरचना है प्याज
जैसे अलाव के इर्द-गिर्द हमारे लोग 
जैसे दुपहर की छुट्टी में रोटी खाते 
खेतिहर मजूरों के टोले 
एक-दूसरे से बाँटते हुए 
रोटी, नमक और तकलीफ 

एक संरचना है प्याज
गुस्से और निश्चय में कसी हुई मुट्ठी 
एक गुँथी-बुनी 
संगठित रचना है
               प्याज।  

अपनी जड़ें 
और बीज 
अपने पेट में साथ लेकर 
पैदा होते हैं 
प्याज। 

कहीं भी रोप दो 
उग आएँगे 
और फैलेंगे 
झुंड-के-झुंड 
इकट्ठे जनमते हैं वे 
ज़मीन के भीतर,
नन्हे-नन्हे सफेद फूल 
और नाजुक हरी पत्तियाँ 
हवा में हिलाते हुए। 

पलक झपकते 
एक से दो 
और दो से दस होते हुए 
एक सघन समूह हो जाते हैं 
                             प्याज। 

एक संरचना अहै प्याज
ज़मीन के भीतर-भीतर 
एक मोर्चाबन्द कार्यवाही। 
कत्थई देह में रस भरी आत्मा 
और मिट्टी की गन्ध लिये 

जो 
अचानक 
फूट पड़ेगी 
एक दिन 
और फैल जाएगी 
सारे बाजार पर। 

एक संरचना है प्याज। 


कवि - राजेश जोशी 
संकलन - धूप घड़ी
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002

शनिवार, 19 जुलाई 2025

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर (By Meer Taqi Meer)

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर 

की बात उन ने कोई, सो क्या चबा-चबा कर 


शायद कि मुँह फिरा है, बंदों से कुछ खुदा का 

निकले है काम अपना कोई खुदा-खुदा कर 


कान इस तरफ़ न रक्खे, इस हर्फ़-नाशनो ने 

कहते रहे बहुत हम उसको सुना-सुना कर 


कहते थे हम कि उसको देखा करो न इतना 

दिल खूँ किया न अपना आँखें लड़ा-लड़ा कर 


आगे ही मर रहे हैं, हम इश्क़ में बुताँ के 

तलवार खींचते हो, हमको दिखा-दिखा कर 


वो बे-वफ़ा न आया बाली पे वक़्त-ए-रफ़्तन 

सौ बार हमने देखा सर को उठा-उठा कर 


जलते थे होले होले हम यूँ तो आशिक़ी में 

पर उन ने जी ही मारा आखिर जला-जला कर 


हर्फ़-नाशनो - बात न सुननेवाला 

बुताँ - माशूक़ 

बाली - सिरहाना, तकिया 

वक़्त-ए-रफ़्तन - जाने के वक़्त, मरने के समय 


शायर - मीर तक़ी मीर 

संकलन - चलो टुक मीर को सुनने

संपादन - विपिन गर्ग 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2024  

नुक़्ते की परेशानी के लिए माफ़ी के साथ क्योंकि लाख कोशिश करके भी टाइप में कई जगह नहीं आया।  

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

दीये सब बुझ चुके हैं (Deeye sab bujh chuke hain By Ashok Vajpeyi)

एक-एक कर 

दीये सब बुझ चुके हैं

एक मोमबत्ती कहीं बची थी 

जो अब ढूँढ़े नहीं मिल रही है। 


अँधेरा अपनी लम्बी असमाप्य गाथा का 

एक और पृष्ठ पलट रहा है 

जिसमें बुझे हुए दीयों का कोई ज़िक्र नहीं है। 


जब रोशनी थी, हम उसे दर्ज करना भूल गये 

और उसकी याद 

थोड़ी-सी उजास ला देती है 

जिसे अँधेरा फ़ौरन ही निगल जाता है। 

खिड़की से बाहर दिखाई नहीं देती 

पर हो सकता है 

भोर हो रही हो। 


हमारे हिस्से रोशनी भी आयी 

बहुत सारे अँधेरों के साथ-साथ 

और लग रहा है 

कि अँधेरा ही बचेगा आखिर में 

सारी रोशनियाँ बुझ जाएँगी। 


कवि - अशोक वाजपेयी 

संकलन - अपना समय नहीं 

प्रकाशन - सेतु प्रकाशन, नोएडा (उत्तर प्रदेश), 2023