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शनिवार, 31 अगस्त 2013

कटुई का गीत (Katui ka geet by Kedarnath Agrawal)


काटो काटो काटो करबी 
साइत और कुसाइत क्या है 
जीवन से बढ़ साइत क्या है 

काटो काटो काटो करबी 
मारो मारो मारो हँसिया 
हिंसा और अहिंसा क्या है 
जीवन से बढ़ हिंसा क्या है 

मारो मारो मारो हँसिया 
पाटो पाटो पाटो धरती 
धीरज और अधीरज क्या है 
कारज से बढ़ धीरज क्या है 

पाटो पाटो पाटो धरती 
काटो काटो काटो करबी 
                             -1946 


कवि - केदारनाथ अग्रवाल 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अशोक त्रिपाठी 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2012 

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

स्कूल की लड़कियाँ (School ki ladkiyan by Zafar Jahan Begum)

जो लड़कियाँ स्कूलों में तालीम पाती हैं, तालीमे निस्वाँ के मुख़ालिफ़ीन (विरोधियों) की निगाहें उनके तमाम हालात का मुआएना निहायत गौर से करती रहती हैं l और ज़रा कोई बात ख़िलाफ़े मामूल (दस्तूर के ख़िलाफ़) नज़र आई नहीं कि फ़ौरन इसकी गिरफ़्त हो जाती है l और तमाम इलज़ाम स्कूल की तालीम पर थोप दिया जाता है l … 
मेरी एक अज़ीज़ा का कौल है कि बड़ी बूढ़ियाँ जिस नज़र से अपनी बहू और बेटी को देखती हैं, बिल्कुल उसी नज़र से स्कूल और घर की लड़कियों को देखती हैं l यानी जिस तरह कोई ऐब अगर बहू में होगा और इसी क़िस्म का या बिल्कुल वही ऐब बेटी में भी होगा तो बहू का तो साफ़ नज़र आ जाएगा, लेकिन बेटी का या तो नज़र ही नहीं आएगा या अम्दन (जान-बूझकर) नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा l  बिल्कुल यही फ़र्क़ घर और स्कूल की लड़कियों के साथ होता है l यानी जो बरताव बहू के साथ होगा वो स्कूल की लड़की के साथ होगा l और जो तरीक़ा अपनी बेटी के साथ बरता जाता है वो घर की लड़कियों के साथ बरता जाता है l … 


यह अंश 'तहज़ीबे निस्वाँ' नामक उर्दू पत्रिका  में छपी 'स्कूल की लड़कियाँ' शीर्षक रचना से लिया गया है l इसका प्रकाशन वर्ष 1927था l शिक्षा को लेकर जो व्यापक बहस तत्कालीन समाज और समुदाय में चल रही थी उसमें औरतों का स्वर और तेवर ख़ासा अलग था, इसकी  झलक इस अंश में मिलती है l 

लेखिका - ज़फ़र जहाँ बेगम 
किताब - कलामे निस्वाँ 
संपादन - पूर्वा भारद्वाज 
संकलन - हुमा खान 
प्रकाशन - निरंतर, दिल्ली, 2013
 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

आहिस्ता (Aahista by Makhdoom Mohiuddin)


साज़ आहिस्ता ज़रा गरदिशे जाम आहिस्ता 
जाने क्या आए निगाहों का पयाम आहिस्ता l 

चाँद उतरा के उतर आए सितारे दिल में 
ख़्वाब में होठों पे आया तेरा नाम आहिस्ता l 
 
कू-ए-जानां में क़दम पड़ते हैं हल्के-हल्के 
आशियाने की तरफ़ तायर-ए-बाम आहिस्ता l 

उनके पहलू के महकते हुए शादां झोंके 
यूं चले जैसे शराबी का ख़राम आहिस्ता l 
 
और भी बैठे हैं ऐ दिल ज़रा आहिस्ता धड़क 
बज़्म है पहलू-ब-पहलू है कलाम आहिस्ता l 
 
                 ये तमन्ना है के उड़ती हुई मंज़िल का गुबार      
                 सुबह के पर्दे में या आ गई शाम आहिस्ता l 


कू-ए-जानां = प्रेमिका की गली 
तायर-ए-बाम = मुंडेर का पक्षी 
शादां  = सुख पहुँचानेवाले 
ख़राम = चाल 
कलाम = काव्य
 
शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004 

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

छायापट (Chhayapat by Sumitranandan Pant)

मन जलता है,
अन्धकार का क्षण जलता है,
मन जलता है !

मेरा मन तन बन जाता है,
तन का मन फिर कटकर,
छँटकर 
कन-कन ऊपर 
उठ पाता है !
मेरा मन तन बन जाता है !

            तन के मन के श्रवण नयन हैं,
            जीवन से सम्बन्ध गहन हैं ;
            कुछ पहचाने, कुछ गोपन हैं,
            जो सुख-दुख के संवेदन हैं !
            कब यह उड़ जग में छा जाता,
            जीवन की रज लिपटा लाता,
            घिर मेरे चेतना गगन में 
            इन्द्रधनुष घन बन मुसकाता ?
            नहीं जानता, कब, कैसे फिर 
            यह प्रकाश किरणें बरसाता !
            बाहर-भीतर ऊपर-नीचे 
            मेरा मन जाता-आता है,
            सर्व व्यक्ति बनता जाता है !
 
तन के मन में कहीं अन्तरित 
आत्मा का मन है चिर ज्योतित,
इन छाया दृश्यों को जो 
निज आभा से कर देता जीवित !

            यह आदान-प्रदान मुझे 
            जाने कैसे क्या सिखलाता है !
            क्या है ज्ञेय ? कौन ज्ञाता है ?
            मन भीतर-बाहर जाता है !

            मन जलता है,
            मन में तन में रण चलता है ;
            चेतन अवचेतन नित नव 
            परिवर्तन में ढलता है !
            मन जलता है !


कवि - सुमित्रानंदन पन्त  
संकलन - स्वच्छंद  
प्रमुख संपादक - अशोक वाजपेयी, संपादक - अपूर्वानंद, प्रभात रंजन
प्रकाशक -  महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000

बुधवार, 21 अगस्त 2013

अब मैं भी हड़ताल करूँगी (Ab main bhi hadtaal karungi by Ramjiwan Sharma 'Jiwan')

अब मैं भी हड़ताल करूँगी

नित्य बनाना पड़ता खाना 
छुटा टहलना, भूला गाना 
चूल्हा-चक्की से छुट्टी ले 
कुछ दिन कानन में विहरूँगी 
अब मैं भी हड़ताल करूँगी 

कहती थीं कल मुन्नी मामी 
टूट चुकी है प्रथा गुलामी 
सब सेवक लड़ते स्वामी से 
फिर पति से मैं क्यों न लडूँगी 
अब मैं भी हड़ताल करूँगी  

खाना-कपड़ा ही तो देते 
अन्य बात की सुधि कब लेते 
वे नेता हैं, तो मैं भी
साहित्य-क्षेत्र में कूद पडूँगी 
अब मैं भी हड़ताल करूँगी 

स्वत्वहेतु लड़ने का युग यह 
माँग पेश करने का युग यह 
मैं भी अपनी माँगें उनके 
सम्मुख रखने में न डरूँगी 
अब मैं भी हड़ताल करूँगी  

औरत-मर्द बराबर जग में 
खून एक दोनों की रग में
फिर वे क्यों बाहर टहलेंगे 
मैं चूल्हे के निकट मरूँगी ?
अब मैं भी हड़ताल करूँगी 

मूर्ख नहीं, इंट्रेंस पास मैं 
फिर क्योंकर होऊँ हताश मैं 
स्वयं कमाऊँगी खाऊँगी 
जंगल-जंगल घूम चरूँगी 
अब मैं भी हड़ताल करूँगी 

झंझट ज्यादा मोल न लूँगी 
बच्चों को मैं जन्म न दूँगी 
युग है यह कंट्रोलों का, फिर 
क्यों न बर्थ-कंट्रोल करूँगी 
अब मैं भी हड़ताल करूँगी 


कवि - रामजीवन शर्मा 'जीवन' किताब - काव्य समग्र : रामजीवन शर्मा 'जीवन' संपादक - नंदकिशोर नवल प्रकाशक - सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 1996

नज़रों से गिरानेवाले (Nazron se giranewale by Habeeb 'Jalib')

हमको नज़रों से गिरानेवाले 
ढूँढ़ अब नाज़ उठानेवाले 

छोड़ जाएँगे कुछ ऐसी यादें 
रोएँगे हमको ज़मानेवाले 

रह गए नक़्श हमारे बाक़ी 
मिट गए हमको मिटानेवाले 

मंज़िले-गुल का पता देते हैं 
राह में ख़ार बिछानेवाले

इन ज़मीनों पे गुहर बरसेंगे 
ऐसे कुछ अब्र हैं छानेवाले

देख वो सुब्ह का सूरज निकला 
मुस्कुरा अश्क बहानेवाले !

आस में बैठे हैं जिनकी 'जालिब'
वो ज़माने भी हैं आनेवाले 

ख़ार = काँटे    गुहर = मोती  अब्र = बादल


शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

सोमवार, 19 अगस्त 2013

आओ बैठा जाय (Aao baitha jaay by Ramgopal Sharma 'Rudra')

आओ, बैठा जाय -
आओ, बैठा जाय यहाँ, कुछ देर बैठा जाय !
      
                       दूबों का मखमली गलीचा
                       धरती की ममता से सींचा,
                       खुली चाँदनी, धुला बगीचा,
आओ, बैठ यहाँ वह कौतुक फिर दुहराया जाय !

                      जीवन में ऐसे सुख के छिन 
                      गिने-चुने होते हैं, लेकिन,
                      भूले नहीं भूलते वे दिन ;
आओ, उस दिन-सा, आँखों-आँखों मुसकाया जाय l 
                                                               - 1944 

 
कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र', 1943
संकलन - 'हर अक्षर है टुकड़ा दिल का' में 'शिंजिनी' से 
संपादक - नंदकिशोर नवल  
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2008

रविवार, 18 अगस्त 2013

छाता (Chhata by Kedarnath Singh)

बीस बरस बाद 
छाता लगाये हुए 
पडरौना बाज़ार में मुझे दिख गये बंगाली बाबू 

बीस बरस बाद चिल्लाया 
बंगाली बाबू ! बंगाली बाबू !
कैसे हैं बंगाली बाबू !

वे मुड़े 
मुझे देखा
मुस्कुराये 
और 'ठीक हूँ' कहते हुए बढ़ गये आगे 

मैं समझ न सका 
बीस बरस बाद छाता लगाये हुए 
कितने सुखी 
या दुखी हैं बंगाली बाबू 

देखा बस इतना 
कि मेरी आँखों के आगे 
चला जा रहा है एक छाता 
सोचता हुआ 
मुस्कुराता हुआ 
ढाढ़स बँधाता हुआ 
बोलता-बतियाता हुआ छाता !


     कवि - केदारनाथ सिंह
     संकलन - यहाँ से देखो
     प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

शनिवार, 17 अगस्त 2013

बन जाता दीप्तिवान (Ban jata deeptiwan by Vijay Dev Narayan Sahi)

सूरज सवेरे से 
       जैसे उगा ही नहीं 
       बीत गया सारा दिन 
       बैठे हुए यहीं कहीं 

टिपिर टिपिर टिप टिप 
       आसमान चूता रहा
       बादल सिसकते रहे 
       जितना भी बूता रहा


सील रहे कमरे में 
        भीगे हुए कपड़े 
        चपके दीवारों पर 
        झींगुर औ' चपड़े 

ये ही हैं साथी और 
        ये ही सहभोक्ता 
        मेरे हर चिन्तन के 
        चिन्तित उपयोक्ता 

दोपहर जाने तक 
        बादल सब छँट गये 
        कहने को इतने थे 
        कोने में अँट गये 

सूरज यों निकला ज्यों 
        उतर आया ताक़ से 
        धूप वह करारी, बोली 
        खोपड़ी चटाक से 

ऐसी तच गयी जैसे 
       बादल तो थे ही नहीं 
       और अगर थे भी तो 
       धूप को है शर्म कहीं ?

भीगे या सीले हुए 
       और लोग होते हैं 
       सूरज की राशि वाले 
       बादल को रोते हैं ?

ओ मेरे निर्माता 
देते तुम मुझको भी 
हर उलझी गुत्थी का 
ऐसा ही समाधान 
        या ऐसा दीदा ही
        अपना सब किया कहा 
        औरों पर थोपथाप

        बन जाता दीप्तिवान l 

कवि - विजयदेवनारायण साही
संकलन - मछलीघर 

प्रथम संस्करण के प्रकाशक - भारती भण्डार, इलाहाबाद, 1966
दूसरे संस्करण के प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1995

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

बज उठती वीणा (Baj uthati veena by Ram Iqabal singh 'Rakesh')

रह-रह कर बज उठती वीणा अन्तर की,
जा रही सधी सीमा में पंचम स्वर की l 

आवरण पड़ा हट गया ज्ञान-दर्शन पर,
खिंच गई रश्मि-रेखा-सी भीतर-बाहर l 

भर मन-अम्बर रंगों के घन से घुमड़ा,
सागर ही जैसे हृदयराग का उमड़ा l 

उठ रही भैरवी की मरोर अनजानी,
हिय में गहरे घावों की पीर पुरानी l 

बन गई वेदना आँखों में अंजन-सी,
गीतों के गुंजन में नव अभिव्यंजन-सी l 

संगीत उतर आया क्षर में, अक्षर में,
सब एक हो गए स्वर के लहर-भँवर में l 
                                  (सितंबर, 1976)

कवि - रामइकबाल सिंह 'राकेश'

किताब - राकेश समग्र

संपादन - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001


गुरुवार, 8 अगस्त 2013

फज़िर की अज़ान (Fazir ki azaan by Gyanendrapati)


फज़िर की अज़ान
लाने चली सूरज को 
आकाशलंघी आलाप की लम्बी रस्सी से खींच 
खिंचा चला आता है नलकों में पानी 
करता तर, खुली टोंटियोंवाले, देर से सन्नाते, नलकों के ख़ुश्क हलक 
और जग उठती हैं हलक में फँसी 
दमदार बूढ़ी देहों की दमादार खाँसियाँ
और खड़क उठती हैं खाली बाल्टियाँ बेसाख़्ता 
और भरी बची रात छलक उठती है 
उनके भीतर से बाहर, गोलार्ध के बाहर 


यह एक भारतीय भोर है 
एक मँझोले नगर का 
झंगोले पर लेटा 
प्रत्यूष को सुनता हूँ 
पृथ्वी पर प्रतिध्वनित 
और लगता है 
कबसे सुनता ही आ रहा हूँ
अपने होने से भी पहले से 
भारतीय भोर की यह आहट 
सुनता हूँ 
और बड़ी भोरहरिया, बाबा जिसे कहते थे ब्राह्म वेला 
झलफलाह में जब दिशाएँ खुलने लगती हैं 
पुरुब में बलता हुआ भुरुकवा 
औचक और अजीब एक ख़याल बन उजलता है भीतर :
भारतीय आकाश से 
खदेड़ने न देंगे कभी किसी गिद्ध-दल को
फज़िर की अज़ान


कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004

बुधवार, 7 अगस्त 2013

कोयल और बच्चा (Koyal aur bachcha by Vijay Dev Narayan Sahi)

सन्तों ऐसा मैंने एक अजूबा देखा l

आज कहीं कोयल बोली 
मौसम में पहली बार 
और उसके साथ ही, पिछवाड़े,
किसी बच्चे ने उसकी नकल कर के 
उसे चिढ़ाया कू … कू … 

देर तक यह बोलना चिढ़ाना चला l 
खीज कर कोयल चुप हो गयी 
खुश हो कर बच्चा l
 
कवि - विजय देव नारायण साही 
संग्रह - साखी
प्रकाशन - सातवाहन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1983

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

पिंजड़े में (Pinjade mein by Vinod Kumar Shukla)

पिंजड़े में 
लिपिक ! लिपिक !!
बोलने वाला तोता 
साहब के घर में था l 

बहुत प्राचीन पक्षी लिपि है 
सांध्य आकाश में पक्षियों की पंक्ति 
संदर्भ लौटने का, वाक्य है 
यह विषय भी लौटने का  इतना है 
कि वाक्य भी लौटता है l 
अपने कार्यालय की खिड़की से 
उन उड़ते हुए पक्षियों से 
मैंने कहा आभार l

आभार पक्षियों की ओर उड़ गया 
पहले एक मेरा आभार था
और बाकी सब सारस थे 
फिर उसका भी आभार था 
और सब सारस थे l


कवि -  विनोदकुमार शुक्ल
संकलन - अतिरिक्त नहीं
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

सोमवार, 5 अगस्त 2013

मेघ मल्लार (Megh mallar by Nirala)

श्याम घटा घन घिर आयी l
पुरवाई फिर फिर आयी l 

बिजली कौंध रही है छन-छन,
काँप रहा है उपवन-उपवन,
चिड़ियाँ नीड़-नीड़ में निःस्वन,
सरित-सजलता तिर आयी l 

गृहमुख बूँदों के दल टूटे,
जल के विपुल स्रोत थल छूटे,
नव-नव सौरभ के दव फूटे,
श्री जग-तरु के सर आयी l 
(संगम, साप्ताहिक, इलाहाबाद, 7 अगस्त, 1949)


कवि - निराला
संग्रह - असंकलित कविताएँ : निराला 
संपादक - नन्दकिशोर नवल 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1981

शनिवार, 3 अगस्त 2013

पोस्टकार्ड (Postcard by Kedarnath Singh)

यह खुला है 
इसलिए ख़तरनाक है 
ख़तरनाक है इसलिए सुंदर 

इसे कोई भी पढ़ सकता है 
वह भी जिसे पढ़ना नहीं 
सिर्फ़ छूना आता है 

इस पर लिखा जा सकता है कुछ भी 
बस, एक ही शर्त है 
कि जो भी लिखा जाय 
पोस्टकार्ड की अपनी स्वरलिपि में 
लिखा जाय 

पोस्टकार्ड की स्वरलिपि 
कबूतरों की स्वरलिपि है 
असल में यह कबूतरों की किसी भूली हुई 
प्रजाति का है 
उससे टूटकर गिरा हुआ 
एक पुरातन डैना 

इसका रंग 
तुम्हारी त्वचा के रंग से 
बहुत मिलता है 
पर नहीं 
तुम दावा नहीं कर सकते 
कि जो तुम्हें अभी-अभी देकर गया है डाकिया 
वह तुम्हारा 
और सिर्फ़ तुम्हारा पोस्टकार्ड है 

पोस्टकार्ड का नारा है - 
लिखना 
असल में दिखना है 
समूची दुनिया को 
जिसमें अंधे भी शामिल हैं 

एक कोरा पोस्टकार्ड 
ख़ुद एक संदेश है
मेरे समय का सबसे रोमांचक संदेश l


कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1995