इन दबी हुई यादगारों से खुशबू आती है
और मैं पागल हो जाता हूँ
जैसे महामारी डसा चूहा
बिल से निकल कर खुले में नाचता है
फिर दम तोड़ देता है l
न जाने कितनी बार
मैं नाच-नाच कर
दम तोड़ चुका हूँ
और लोग सड़क पर पड़ी मेरी लाश से
कतरा कर चले गए हैं l
कवि - विजय देव नारायण साही
संग्रह - साखी
प्रकाशन - सातवाहन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1983
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें