नीबू के खिच्चे पत्तों सरीखे नरम आलोक से
भर उठी है पृथ्वी इस भोर वेला में
कच्चे कागजी नीबू सरीखी हरित सुगंधा घास
दाँतों से नोच रहे हैं हिरण
मेरा भी मन होता है
चषक भर-भर पी लूँ हरित मदिरा की तरह
इस घास की यह गंध l
इस घास के तन को दुहकर
मलूँ अपनी आँखों पर
समा जाऊँ इस घास के डैनों में पंख बनकर
घास के अन्दर घास बन जन्म लूँ,
किसी निविड़ दूर्वा-माँ के शरीर के
सुस्वादु तिमिर से उतरकर l
कवि - जीवनानंद दास
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - निर्मल कुमार चक्रवर्ती
संग्रह - वनलता सेन और अन्य कविताएँ
संग्रह - वनलता सेन और अन्य कविताएँ
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006
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