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गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मेरा जीवन (Autobiography by Helen Keller)



1890 के वसंत में मैंने बोलना सीखा. मेरे अन्दर हमेशा यह इच्छा उमड़ती रहती थी कि मैं श्रव्य ध्वनियाँ मुँह से निकाल सकूँ. मैं एक हाथ अपने गले पर रख कर शोर किया करती थी और दूसरे हाथ से अपने होंठों का चलना महसूस करती थी. मुझे शोर करनेवाली हर चीज पसंद थी और बिल्ली का घुरघुराना तथा कुत्ते का भौंकना मुझे अच्छा लगता था. मुझे अपना एक हाथ गायक के गले पर रखना या बजते हुए पियानो पर रखना भी अच्छा लगता था. अपनी दृष्टि और श्रवण-शक्ति खोने से पहले, मैं बात करना जल्दी सीखने लगी थी, लेकिन मेरी बीमारी के बाद यह पता चला कि मेरा बोलना इसलिए बंद हो गया क्योंकि मैं सुन नहीं सकती थी. मैं सारे-सारे दिन अपनी माँ की गोद में बैठी रहती थी और अपना हाथ माँ के चेहरे पर रखे रहती थी, क्योंकि उसके होंठों की क्रिया को महसूस करने में मुझे मजा आता था, और मैं अपने होंठ भी हिलाती थी, हालाँकि मैं भूल चुकी थी कि बात करना क्या होता है. मेरे मित्र कहते हैं कि मैं स्वाभाविक ढंग से हँसती और रोती थी और कुछ समय तक तो मैं अनेक ध्वनियाँ एवं शब्दांश निकाला करती थी. इसलिए नहीं कि वे संप्रेषण के उपाय थे, बल्कि इसलिए कि मेरी स्वरतन्त्रियों का अभ्यास जरूरी था. तथापि एक शब्द ऐसा था जिसका मतलब मुझे अभी तक याद है. वह शब्द था-वॉटर. मैं इसे 'वॉ-वॉ' उच्चारित करती थी. यह उच्चारण भी कम से कमतर बोधगम्य हो गया, जब तक कि मिस सुलिवॉन ने आकर मुझे सिखाना शुरू नहीं किया. मैंने इसका प्रयोग करना तभी बंद किया, जब मैंने शब्दों का उच्चारण अपनी उँगलियों पर करना सीख लिया था.     


लेखिका - हेलन कीलर(1880 -1968)
किताब - मेरा जीवन
प्रकाशक - विद्या विहार, दिल्ली, 2011

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