इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !
ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग़-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो ;
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !
तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो !
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !
उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की बसन्त के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अँगार से लगा चुका उमीद मैं तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो !
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो !
कवि - हरिवंशराय बच्चन
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : हरिवंशराय बच्चन
संपादक - मोहन गुप्त
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1986
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