बाले दीप
चतुर नारि ने
पिय आगमन को l
संध्या की पलकें झुकीं,
फैली अलकें भारी
पिय की सुमुखि प्यारी ने
अँगिया से दीप धर
बाले
पिय आगमन को l
दीर्घ निशा की वेला,
रे वह प्रेम की वेला l
एकाकी कवि ही करता उस की अवहेला l
नव रस सनी नारि,
निज तन आँचल सँवार उर
अपने प्यारे को अगोरती
यौवन द्वारे
बाले दीप रे
चतुर नारि ने
पिय आगमन को l
कवि - शमशेरबहादुर सिंह
संकलन - दूसरा सप्तक
संपादक - अज्ञेय
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पहला संस्करण - 1949
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