सारी चीज़ें खो गई हैं
आसमान के पास भी काँटा तक नहीं रहा
जभी तो मिट्टी में बोलने वाले बोलते नहीं
गूँज भी गूँगी हो गई है
रब भी नहीं बोलता
सारी चीज़ें खो गई हैं
मेरे बर्तन
मेरी हँसी
मेरे आँसू
मेरे मक्र
सारी चीज़ें खाली हैं और खो गई हैं
बच्चों के खिलौने
और मेरे श्टापू का कोयला वक़्त लकीर गया है
आँखों में कोई शक्ल नहीं रह गई है
सारी चीज़ें खो गई हैं
मेरे चेहरे
मेरे रंग
मेरे इन्साफ़
जाने कहाँ खो गए हैं
दिल का चेहरा आँख हुआ जाता है
मज़ाक पुराने हो गए हैं
हँसी चारपाई कस रही है
चाँद की रूनुमाई के लिए सूरज आया है
तो आसमान खो गया है
सुलूक भी खो गए हैं
वो भी कभी नहीं आए
जिनके लिए आँखें रखी थीं
और दिल खत्म किए थे
आँखों को रसूल कहा था
और दिल को रब कहा था
सारी चीज़ें खो गई हैं
मक्र = छल, बहाना
रूनुमाई = मुँहदिखाई
पाकिस्तानी शायरा - सारा शगुफ़्ता
संग्रह - नींद का रंग
लिप्यंतरण और संपादन - अर्जुमंद आरा
प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2022
कुछ रोज़ पहले मैंने भोपाल की यात्रा में इस किताब को उठाया। शीर्षक ने ही अपनी तरफ ध्यान खींचा था। तब तक मुझे सारा शगुफ़्ता के बारे में कुछ खास मालूम नहीं था। अर्जुमंद आरा ने जो परिचय दिया है उसने काफी उत्सुकता जगा दी। "पाकिस्तान में नारीवादी उर्दू शायरी की एक उत्कृष्ट लेकिन बहिष्कृत सारा शगुफ़्ता" यह पहला ही वाक्य पर्याप्त था संग्रह को पढ़ जाने के लिए। ईमानदारी की बात है कि एक साँस में यह छोटा-सा संग्रह नहीं पढ़ पाई। साँस टूटती रही कविताओं में से झाँकती सारा शगुफ़्ता की ज़िंदगी का अंदाजा लगाकर। भाषा की दिक्कत भी बीच बीच में आड़े आई। यात्रा से लौटकर हिन्दी और उर्दू के शब्दकोशों को पलटा तो भी कुछ अर्थ हाथ न आए, जैसे 'गवाची' या 'श्टापू' का। सारा खुद बहुत जगह उखड़ी उखड़ी नज़र आती हैं तो तारतम्यता खोजने का मेरा प्रयास भी व्यर्थ जा रहा था। बातों का सिरा कई बार पकड़ में नहीं आया मेरे, फिर भी जो कशिश है उनमें वह दूसरी शायरी से जुदा है। बानगी के तौर पर यह ! हाँ, एक बात जो बड़ी देर तक मेरे मन में चक्कर काटती रही, वह है आँखों को लेकर सारा शगुफ़्ता के प्रयोग। उनकी फ़ेहरिस्त बनाने का मन किया। वैसे अनोखे और अजीबोगरीब वाक्य देखकर सारा की तड़प ही नहीं, ताकत का भी पता चलता है।
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