अच्छा शगुन नहीं हैं
ये अल्फ़ाज़।
मुझे मत बतलाओ कि
स्वर्ग का दरवाज़ा
खुलता है मेरे होठों के बीच से।
मेरी छातियों के बीच की दरार
में
खुदा खुद लड़खड़ा जाता है।
मैं आऊँगी
और फिर
तुम्हारी साँस
मेरे भीतर साँस लेगी,
तुम्हारे फेफड़े भर जाएँगे
मेरी खुशबू से
तुम्हारी जीभ
बरसेगी, बरसेगी
बरसेगी फिर से मेरी त्वचा
पर।
और मैं हथियार डाल दूँगी।
और इस बार
जब तुम आओगे तुम्हारी आँखों
में उस चमक के साथ
मुझे चीर डालने को आमादा,
तुम होगे ही
बिना किसी शक
उस काली बिल्ली की तरह
जो घात से अचानक छलाँग लगाती
हो,
मेरा रास्ता अभी काटते हुए
तुम्हारे दरवाज़े पर उस गौरैया
का शिकार करते हुए
जब तक कि वह गिर न गई
अचंभित और बंधक।
रसचक्र के लिए 'अफ़ग़ानी दूख्तरान' की स्क्रिप्ट पर काम करते हुए ढेर सारी रचनाओं से गुज़री मैं। उनमें से अनेकानेक को स्क्रिप्ट में शामिल नहीं कर पाई थी। उनमें से कुछ के लिए मन बहुत छटपटाया क्योंकि वे अफ़ग़ानी औरतों की खास आवाज़ थीं। ऐसी ही हैं शकीला अज़ीज़ज़ादा।
1964 में काबुल में जन्मी शकीला अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही कहानियाँ और कविताएँ लिखने लगी थीं। पत्र-पत्रिकाओं में वे छपीं भी। अंतरंगता और औरत की चाहत को लेकर उन्होंने खुलकर लिखा है। काबुल विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करने के बाद शकीला अज़ीज़ज़ादा ने नीदरलैंड के Utrecht विश्वविद्यालय में प्राच्य भाषाएँ एवं संस्कृति की पढ़ाई की। और अब वे वहीं रहती हैं। वे खूब लिखती हैं और कई विधाओं में उनको महारत हासिल है।
Herinnering aan niets (Memories About Nothing) नाम से उनका कविता संग्रह दरी और डच भाषा में छपा है। उन्होंने देश-विदेश में अपनी कविताओं का मंचन भी किया है। उनकी कई कविताओं का Mimi Khalvati और Zuzanna Olszewska.ने दरी भाषा से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। उनमें से एक कविता का हिन्दी अनुवाद यहाँ पेश है। अनुवादक हैं अपूर्वानंद।
स्रोत - https://www.poetrytranslation.org/poets/shakila-azizzada
मानवीय संवेदना, ख़ास कर औरतों के प्रति मुखर एक अज़ीम लेखिका की कृति का दिल को छू लेने एवं उद्वेलित करने वाले अनुवाद के लिए अपूर्वानंद जी को बधाई एवं पूर्वा जी को कविता के चयन एवं प्रस्तुतिकरण के लिए आभार 🙏🌷
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