मान लें कि हम सख़्त बीमार हैं, हमें ज़रूरत है सर्जरी की -
जिसका मतलब यह है कि मुमकिन है कि हम उतर न पाएँ
उस उजली मेज़ से।
हालाँकि नामुमकिन है उदासी न महसूस करना
सोचकर कुछ जल्दी जाने के ख़याल से,
फिर भी हम हँसेंगे चुटकुलों पर,
हम खिड़की के बाहर देखेंगे जानने को कि बारिश हो रही है -
और बेचैनी से इंतज़ार करेंगे
सबसे ताज़ा ख़बर का .. .
मान लें कि हम मोर्चे पर हैं -
ऐसी जंग के लिए जो लड़ने लायक है और मान लो
वहाँ, उस पहले हमले में, पहले
ही दिन
हम अपने मुँह के बल गिर पड़ें, मृत।
हम इसे जानेंगे एक विचित्र क्रोध के साथ,
फिर भी हम फ़िक्र में मरते रहेंगे
जंग के नतीजों को लेकर, जो हो सकता है सालो साल चले।
मान लें कि हम जेल में हैं
और पचास के क़रीब हैं,
और मान लो हमारे पास हैं और अठारह
साल ,
इसके पहले कि लोहे के फाटक खुलें,
फिर भी हम रहेंगे उस बाहर के साथ,
उसके लोगों और जानवरों, जद्दोजहद
और हवा के साथ —
मेरा मतलब है बाहर के साथ दीवारों के पार
मेरा मतलब है जैसे भी और जहाँ भी हम हैं
हमें जीना ही चाहिए मानो कि हम कभी नहीं मरेंगे।
तुर्की कवि नाज़िम हिकमत (1902-1963)
स्रोत : /poets.org/poem/living
मूल संकलन : Poems of Nazim Hikmet
तुर्की से अंग्रेज़ी अनुवाद : Randy Blasing and Mutlu
Konuk
प्रकाशन : Persea Books
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद : अपूर्वानंद
आज पूरे 10 साल हुए मनमाफ़िक शुरू किए हुए। 19 जून की दोपहर अनाड़ी की तरह ब्लॉग शुरू किया था अपने दोस्त कब्बू से पूछ-पूछ कर। पहले दो दिन तो ब्लॉग सिर्फ मुझे दिख रहा था। कब्बू से अपनी परेशानी बताई तो उसने सेटिंग में जाकर सर्च इंजन के सामने ला दिया था। उसके बाद मज़ा दुगुना-तिगुना-चौगुना बढ़ता गया। नशे-सा। फिर बीच में मेरा उत्साह जाता रहा कई वजहों से। मनमाफ़िक न कविता मिलती थी, न मन था। इसके बावजूद ब्लॉग ने ही मुझे कुछ-कुछ लिखने की जगह दी जो न कविता है न कहानी।
अब ब्लॉग पर वापस आई हूँ और उम्मीद कर रही हूँ कि इसकी रफ़्तार बनाए रखूँ। आज चंडीगढ़ से आते हुए ट्रेन में अपूर्वानंद ने मनमाफ़िक के लिए अनुवाद किया। इंटरनेट की गति के कारण मुश्किल पेश आई तो अनुवाद की फ़ोटो भेजी और तब उसे टाइप किया मैंने। फ़ॉण्ट और फ़ॉर्मैटिंग की समस्या ने उलझा रखा था, मगर कविता इतनी प्यारी है कि मन आनंदित है।
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