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सोमवार, 15 अप्रैल 2013

दिल्ली में बबूल (Dilli mein babool by Kedarnath Singh)


वह जाड़ों की एक शाम थी 
मैं चला जा रहा था अकेला 
कि अचानक मेरी दृष्टि पड़ी -
धूल से ढँका 
और काँटों से लदा वह खड़ा था उदास 
आती-जाती बसों को 
एकटक देखता हुआ 

बबूल है - मैंने पहचाना 
जैसे भीड़ में कोई बचपन के दोस्त को पहचान ले 
और उसे देखकर ऐसा कुछ हुआ 
कि रख दिया प्रस्ताव 
चलो कनाट प्लेस चलें !

कनाट प्लेस जाने का 
मेरा कोई इरादा नहीं था 
वैसे भी टी-हाउस की चाय से 
मुझे एक चुक्कड़ की चाय से उठाती हुई भाप 
ज़्यादा आकृष्ट करती है 

पर सवाल एक उदास बबूल का था 
जिसे मैं बरसों से जानता था 
सोचा, हर्ज़ क्या है 
शायद इस तरह झर जाए उसकी कुछ उदासी 
और हो सकता है कनाट प्लेस भी हो जाए 
थोड़ा और समृद्ध !

पर अब सवाल था 
वह जाएगा कैसे ?
मैंने एक तिपहिया की ओर देखा 
और हो गया उदास 

लेकिन प्रस्ताव तो मैं रख चुका था 
और उधर बबूल था 
कि हवा में फेंके जा रहा था 
अपनी पुरानी पत्तियाँ  
जैसे चलने से पहले 
कपड़े बदल रहा हो !

मेरे अन्दर से आवाज़ आई -
सोचते क्या हो 
जाने दो बबूल को 
अगर जाता है कनाट प्लेस
हर बाज़ार में होना ही चाहिए काँटों से लदा 
एक बबूल का पेड़ 
बाज़ार के स्वास्थ्य के लिए !

और बबूल का स्वास्थ्य !

मेरे पास कोई उत्तर नहीं था 
शायद कोई उत्तर नहीं था 
किसी के पास भी 

सो, मैंने अपना प्रस्ताव वापस लिया 
और बबूल को छोड़ दिया वहीं 
जहाँ खड़ा था वह 
रास्ते-भर अपनी शर्म को छिपाता हुआ सोचता रहा मैं -
कितनी हास्यास्पद थी मेरी सारी सहानुभूति  
एक बबूल के सामने 
जो अपनी उदासी के बीच भी 
खड़ा था तनकर 

कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - तालस्ताय और साइकिल 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2005 





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