चल रहा हूँ मैं
कि मेरे साथ
कोई और
चलता
जा रहा है !
जा रहा है !
दूर तक फैली हुई
मासूम धरती की
सुहागन गोद में सोये हुए
नवजात शिशु के नेत्र-सी
इस शान्त नीली झील
के तट पर,
जा रहा है !
चल रहा हूँ मैं
कि मेरे साथ
कोई और
चलता जा रहा है !
गोकि मेरे पाँव
थककर चूर
मेरी कल्पना मजबूर
मेरे हर क़दम पर
मंज़िलें भी हो रही हैं
और मुझसे दूर
हज़ारों पगडण्डियाँ भी
उलझनें बनकर
समायी जा रही हैं
खोखले मस्तिष्क में,
लेकिन,
वह निरन्तर जो कि
चलता आ रहा है साथ
इन सबों से सर्वथा निरपेक्ष
लापरवाह
नीली झील के
इस छोर से
उस छोर तक
एक जादू के सपन-सा
तैरता जाता,
उसे छू
ओस-भीगी
ओस-भीगी
कमल पंखुरियाँ
सिहर उठतीं,
कटीली लहरियों
को लाज रंग जाती
सिन्दूरी रंग,
पुरइन की नसों में
जागता
अँगड़ाइयाँ लेता
किसी भोरी कुँआरी
जलपरी
के प्यार का सपना !
कमल लतरें
मृणालों की स्नान-शीतल
बाँहें फैलाकर
उभरते फूल-यौवन के
कसे-से बन्द ढीले कर
बदलती करवटें,
इन करवटों की
इन्द्रजाली प्यास में भी
झूम लहराकर
उतरता, डूबता,
उतरता, डूबता,
पर डूबकर भी
सर्वथा निरपेक्ष
इन सबों के बन्धनों को
चीरकर, झकझोरकर
वह शान्त नीली झील की
गहराइयों से बात करता है,
गोकि मेरा पन्थ उसका पन्थ
उसके क़दम मेरे साथ
किन्तु वह गहराइयों से
बात करता चल रहा है !
सृष्टि के पहले दिवस से
शान्त नीली झील में सोयी हुई गहराइयाँ
शान्त नीली झील में सोयी हुई गहराइयाँ
जिनकी पलक में
युग-युगों के स्वप्न बन्दी हैं !
पर उसे मालूम है
इन रहस्यात्मक,
गूढ़ स्वप्नों का
सरलतम अर्थ
सरलतम अर्थ
जिससे हर क़दम
का भाग्य,
वह पहचान जाता है !
इसलिए हालाँकि मेरे पाँव थककर चूर
मेरी कल्पना मजबूर
मेरी मंज़िलें भी दूर
किन्तु फिर भी
चल रहा हूँ मैं
कि, कोई और मेरे साथ
नीली झील की
गहराइयों से बात करता चल रहा है !
गहराइयों से बात करता चल रहा है !
कवि - धर्मवीर भारती
संग्रह - कुछ लम्बी कविताएँ
संकलन - संयोजन - पुष्पा भारती
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1998
कई बार अच्छे-से अच्छे कवियों को पढ़ते समय कुछ बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं पर अटक जाती हूँ, फिर भी वे पसंदीदा बने रहते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें