मुलायम गर्म समझौते की चादर
ये चादर मैंने बरसों में बुनी है
कहीं भी सच के गुल-बूटे नहीं हैं
किसी भी झूठ का टांका नहीं है
इसी से मैं भी तन ढंक लूंगी अपना
इसी से तुम भी आसूदा रहोगे !
न ख़ुश होगे, न पज़मुर्दा रहोगे
इसी को तान कर बन जायेगा घर
बिछा लेंगे तो खिल उठेगा आंगन
उठा लेंगे तो गिर जायेगी चिलमन.
आसूदा = तृप्त, आश्वस्त पज़मुर्दा = मुरझाया हुआ, कुम्हलाया हुआ
शायरा - ज़हरा निगाह
संकलन - घास तो मुझ जैसी है (पाकिस्तान की विद्रोही स्त्री-कविता)
संकलन व संपादन - शाहिद अनवर
संपादन सहयोग - हादी सरमदी
प्रकाशन - संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2009
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