प्राणपिक प्रिय-नाम रे कह !
मैं मिटी निस्सीम प्रिय में,
वह गया बँध लघु ह्रदय में
अब विरह की रात को तू
चिर मिलन की प्रात रे कह !
दुख-अतिथि का धो चरणतल,
विश्व रसमय कर रहा जल ;
यह नहीं क्रन्दन हठीले !
सजल पावसमास रे कह !
ले गया जिसको लुभा दिन,
लौटती वह स्वप्न बन बन,
है न मेरी नींद, जागृति
का इसे उत्पात रे कह !
एक प्रिय-दृग-श्यामला सा,
दूसरा स्मित की विभा-सा,
यह नहीं निशिदिन इन्हें
प्रिय का मधुर उपहार रे कह !
श्वास से स्पन्दन रहे झर,
लोचनों से रिस रहा उर ;
दान क्या प्रिय ने दिया
निर्वाण का वरदान रे कह !
चल क्षणों का खनिक-संचय,
बालुका से बिन्दु-परिचय,
कह न जीवन तू इसे
प्रिय का निठुर उपहार रे कह !
कवयित्री - महादेवी
संकलन - सन्धिनी
प्रकाशक - लोकभारती, इलाहाबाद, 2005
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